पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०५

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PAPNAM'x' MeanRTAINEEPER शांकरभाष्य अध्याय १३ २८१ अविद्या च सह कार्ये विद्यया हातच्या इसके सिवा श्रुति, स्मृति और न्यायसे भी यही सिद्ध होता है कि विद्याके द्वारा कार्यसहित अविद्या- इति श्रुतिस्मृतिन्यायेभ्यः अवगम्यते । का नाश करना चाहिये । श्रुतयः तावत्-इह चेदवेदीदथ सत्यमास्ति इस विषयमें ये श्रुतियाँ 'यहाँ चदि जान लिया न चेदिहावेदीन्महती विनाष्टिः (केन० उ०२१५) तो बहुत ठोक है और यदि यहाँ नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है' 'उसको इस प्रकार जानने- 'तमेवं विद्वानमृत इह भवति (ऋ-पूउ०६) नान्यः वाला यहाँ अमृत हो जाता है' 'परमपदकी प्राप्तिके पन्या विद्यतेऽयनाय' (श्वे०३०३१८) विद्वान्न बिभेति किसीसे भी भयभीत नहीं होता। किन्तु अज्ञानीके लिये (विद्याके सिवा) अन्य मार्ग नहीं है 'विद्वान् कुतश्चन' (तै०३०२१४) अविदुषस्तु- -अथ तस्य विषयमें(कहा है कि) उसको भय होता है जो भयं भवति' (तै०३० २७) अविद्यायामन्तरे वर्त- कि अविद्याके बीच में ही पड़े हुए हैं। 'जो ब्रह्मको जानता है वह ब्रह्म ही हो जाता है यह देव अन्य मानाः (काउ०२१५ ) 'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' है और मैं अन्य हूँ इस प्रकार जो समझता है वह (मु००३।२।९) 'अन्योऽसावन्योऽहमस्मीति आत्मतत्वको नहीं जानता जैसे ( मनुष्योंका) पशु होता है वैसे ही वह देवताओंका पशु है' न स वेद यथा पशुरेवं सदेवानाम् ' आत्मविद्यः स किन्तु जो आत्मज्ञानी है ( उसके विषयमें ) 'वह इंदं सर्वे भवति (बृ०उ०१।४।१०) 'यदा चर्मवत्' यह सब कुछ हो जाता है' 'यदि आकाशको चर्मके समान लपेटा जा सके' इत्यादि सहस्रों (० उ०६।२०) इत्याद्याः सहस्रशः। श्रुतियाँ हैं। स्मृतयः च-'अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन तथा ये स्मृतियाँ भी हैं-ज्ञान अज्ञानसे ढंका मुह्यन्ति जन्तवः' इहैव तैर्जितः सगों येषां साम्ये हुआ है, इसलिये जीव,मोहित हो रहे हैं जिनका चित्त समतामें स्थित है उन्होंने यहीं संसारको स्थितं मनः 'समं पश्यन्हि सर्वत्र' इत्याद्याः। जीत लिया है' 'सर्वत्र समानभावसे देखता हुआ इत्यादि । न्यायतः च-सर्पान्कुशाग्राणि तथोदपानं युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है। जैसे कहा है कि ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति । अज्ञानतस्तत्र पतन्ति सर्प, कुश-कण्टक और तालाबको जान लेनेवर मनुष्य उनले बच जाते हैं किन्तु बिना जाने कई केचिज्ज्ञाने फलं पश्य तथा विशिष्टम् ॥' ( महा० एक उनमें गिर जाते हैं, इस न्यायसे ज्ञानका जो शा०२०१११६) विशेष फल है उसको समझ।' तथा च देहादिषु आत्मवुद्धिः अविद्वान् इस प्रकार उपर्युक्त प्रमाणोंसे यह ज्ञात होता है कि देहादिमें आत्मबुद्धि करनेवाला अज्ञानी राग- रागद्वेषादिप्रयुक्तो धर्माधर्मानुष्ठानकुद् जायते द्वेषादि दोषोंसे प्रेरित होकर धर्म-अधर्मरूप कर्मोका नियते च इति अवगम्यते, देहादिव्यतिरिक्ता- अनुष्ठान करता हुआ जन्मता और मरता रहता है, किन्तु देहादिसे अतिरिक्त आत्माका साक्षात् करने- स्मदर्शिनो रागद्वेषादिप्रहाणापेक्षधर्माधर्म- वाले पुरुषोंके राग-द्वेषादि दोष निवृत्त हो जाते हैं, प्रवृत्युपशमाद् मुच्यन्ते इति न केनचित् इससे उनकी धर्माधर्मविषयक प्रवृत्ति शान्त हो जानेसे वे मुक्त हो जाते हैं । इस बातका कोई भी प्रत्याख्यातुं शक्यं न्यायतः। न्यायानुसार विरोध नहीं कर सकता।