पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०६

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२६० श्रीमद्भगवद्गीता तत्र एवं सति क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्य एव सतः अतः यह सिद्ध हुआ कि जो वास्तवमें ईश्वर ही है अविद्याकृतोपाधिभेदतः संसारित्वम् इव भवति। उस क्षेत्रज्ञको अविद्याद्वारा आरोपित उपाधिके भेदसे संसारित्व प्राप्त-सा हो जाता है, जैसे कि जीवको यथा देहाद्यात्मत्वम् आत्मनः । सर्वजन्तूनां हि देहादिमें आत्मबुद्धि हो जाती है क्योंकि समस्त जीवों- प्रसिद्धो देहादिषु अनात्मसु आत्मभावो का जो देहादि अनात्म-पदार्थों में आत्मभाव प्रसिद्ध है, निश्चित: अविद्याकृतः। वह निःसन्देह अविद्याकृत ही है । यथा स्थाणौ पुरुषनिश्चयो न च एतावता जैसे स्तम्भमें मनुष्यबुद्धि हो जाती है, परन्तु पुरुषधर्मः स्थाणोः भवति स्थाणुधर्मो वा | इतनेहीसे मनुष्यके धर्म स्तम्भमें और स्तम्भके धर्म पुरुषस्य तथा न चैतन्यधर्मो देहस्य देहधर्मो वा मनुष्यमें नहीं आ जाते, वैसे ही चेतनके धर्म देहमें चेतनस्य । और देहके धर्म चेतनमें नहीं आ सकते । सुखदुःखमोहात्मकत्वादिः आत्मनो न जरा और मृत्युके समान हो अविद्याके कार्य होनेसे सुख-दुःख और अज्ञान आदि भी उन्हींकी युक्तः अविद्याकृतत्वाविशेषाद् जरामृत्युक्त् । भाँति आत्माके धर्म नहीं हो सकते । न अतुल्यत्वाद् इति चेत्, स्थाणुपुरुषौ पू०--यदि ऐसा माने कि विषम होनेके कारण यह ज्ञेयौ एव सन्तौ ज्ञात्रा अन्योन्यस्मिन् दृष्टान्त ठीक नहीं है अर्थात् स्तम्भ और पुरुष दोनों ज्ञेय वस्तु हैं, उनमें अविद्यावश ज्ञाताद्वारा एकमें एकका अध्यस्तौ अविद्यया देहात्मनोः तु ज्ञेयज्ञात्रोः अध्यास किया गया है, परन्तु देह और आत्मामें एव इतरेतराध्यास इति न समो दृष्टान्तः अतो तो ज्ञेय और ज्ञाताका ही एक दूसरेमें अध्यास होता देहधर्मो ज्ञेयः अपि ज्ञातुः आत्मनो भवति है, इसलिये यह दृष्टान्त सम नहीं है, अतः यह सिद्ध इति चेत् । होता है कि देहका ज्ञेयरूप ( सुखदुःखादि ) धर्म भी ज्ञाता-आत्मामें होता है। न अचैतन्यादिप्रसङ्गात् । यदि हि ज्ञेयस्य उ०-इसमें आत्माको जड मानने आदिका प्रसंग देहादेः क्षेत्रस्य धर्माः सुखदुःखमोहेच्छादयो आ जाता है, इसलिये ऐसा मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यदि ज्ञेयरूप शरीरादि-क्षेत्रके सुख, दुःख, ज्ञातुः भवन्ति तहिं ज्ञेयस्य क्षेत्रस्य धर्माः मोह और इच्छादि धर्म ज्ञाता ( आत्मा ) के भी होते केचन आत्मनो भवन्ति अविनाध्यारोपिता हैं, तो यह बतलाना चाहिये कि ज्ञेयरूप क्षेत्रके जरामरणादयः तु न भवन्ति इति विशेषहेतुः अविद्याद्वारा आरोपित कुछ धर्म तो आत्मामें होते हैं और कुछ--'जरामरणादि नहीं होते, इस वक्तव्यः। विशेषताका कारण क्या है ? न भवन्ति इति अस्ति अनुमानम् अविद्या- बल्कि, ऐसा अनुमान तो किया जा सकता है कि जरा आदिके समान अविद्याद्वारा आरोपित और ध्यारोपितत्वाद् जरादिवद् इति हेयत्वाद् त्याज्य तथा ग्राह्य होनेके कारण ये सुखदुःखादि उपादेयत्वात् च इत्यादि। ( आत्माके धर्म ) नहीं हैं।