पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०७

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mediaNAMANAREner",......... MARA KOS शांकरभाष्य अध्याय १३ २६१ तत्र एवं सति कर्तृत्त्वभोक्तत्वलक्षणः संसारो ऐसा होने से यह सिद्ध हुआ कि कर्तृत्व-भोक्तृत्व- ज्ञेयस्यो ज्ञातरि अविद्यया अध्यारोपित इति रूप यह संसार शेय वस्तुमें स्थित हुआ ही अविद्याद्वारा ज्ञातामें अध्यारोपित है, अतः उससे ज्ञाताका कुछ भी न तेन ज्ञातुः किंचिद् दुध्यति । यथा वाले नहीं बिगड़ता, जैसे कि मुखोद्वारा अध्यारोपित तल. अध्यारोपितेन आकाशस्य तलमलबत्त्यादिना । मलिनतादिसे आकाशका (कुछ भी नहीं बिगड़ता )। एवं च सति सर्वक्षेत्रेषु अपि सतो भगवतः अतः सब शरीरोंमें रहते हुए भी भगवान् क्षेत्रज्ञ क्षेत्रज्ञस्य ईश्वरस्य संसारित्वगन्धमात्रम् अपि ईश्वरमें संसारीपनके गन्धमात्रकी भी शंका नहीं न आशङ्कयम् । न हि कचिद् अपि लोके करनी चाहिये । क्योंकि संसारमें कहीं भी अविद्या- अविद्याध्यस्तेन थर्मेण कस्यचिद् उपकारो द्वारा आरोपित धर्मसे किसीका भी उपकार या अपकारो वा दृष्टः। अपकार होता नहीं देखा जाता। यत् तु उक्तं न समो दृष्टान्त इति । तद् तुमने जो यह कहा था कि ( स्तम्भमें मनुष्यके भ्रमका ) दृष्टान्त सम नहीं है सो ( यह कहना ) असत् । ०- । कथम्न अविद्याध्यासमात्रं हि दृष्टान्तदान्तिकयोः १०-अविद्याजन्य अध्यासमात्रमें ही दृष्टान्त । और दार्टान्तकी समानता विवक्षित है। उसमें कोई साधयं विवक्षितम् । तद् न व्यभिचरति । ! दोष नहीं आता। परन्तु तुम जो यह मानते हो कि, यत् तु ज्ञातरि व्यभिचरति इति मन्यसे तस्य ज्ञातामें दृष्टान्त और दार्टान्तकी विषमताका दोष आता है, तो उसका भी अपवाद, जरा-मृत्यु आदिके अपि अनैकान्तिकत्वम् दर्शितं जरादिमिः। दृष्टान्तसे दिखला दिया गया है । अविद्यावत्त्वात् क्षेत्रज्ञस्य संसारित्वम् इति पू०-यदि ऐसा कहें कि अविद्या-युक्त होनेसे चेत् । क्षेत्रज्ञको ही संसारित्व प्राप्त हुआ, तो ? न, अविद्यायाः तामसत्वात् । तामसो हि उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि अविद्या तामस प्रत्यय है । तामस प्रत्यय, चाहे विपरीत प्रत्यय आवरणात्मकत्वाद् अविद्या, विपरीत- । ग्रहण करानेवाला (विपर्यय ) हो, चाहे संशय

  • उत्पन्न करनेवाला ( संशय ) हो और चाहे कुछ

ग्राहकः संशयोपस्थापको वा अग्रहणात्मको भी ग्रहण न करानेवाला हो, आवरणरूप होनेके कारण वह अविद्या ही है। क्योंकि विवेकरूप वा । विवेकप्रकाशभावे तदभावात् । तामसे प्रकाशके होने पर वह दूर हो जाता है, तथा आवरण- च आवरणात्मके तिमिरादिदोषे सति रूप तमोमय तिमिरादि दोषोंके रहते हुए ही अग्रहण आदिरूप तीन प्रकारकी अविद्याका अस्तित्व अग्रहणादेः अविद्यात्रयस्य उपलब्धः। उपलब्ध होता है।