पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०८

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२६२ श्रीमद्भगवद्गीता अत्र आह एवं तर्हि ज्ञातृधर्मः अविद्या ! पू--यदि यह बान है नब तो अविद्या ज्ञाताका धर्म हुआ। न करणे चक्षुषि तैमिरिकत्वादिदोषो- उ-यह कहना ठीक नहीं. क्योंकि तिमिर- पलब्धेः यत् तु मन्यसे ज्ञातृधर्मः अविद्या रोगादिजन्य दोष चक्षु आदि करणोंमें ही देखे जाते हैं ( ज्ञाता आत्मामें नहीं)। जो तुम ऐसा मानते तद् एव च अविद्याधर्मवत्वं क्षेत्रज्ञस्य हो कि 'अविद्या ज्ञाताका धर्म है और अविधारूप संसारित्वम् । तत्र यद् उक्तम् ईश्वर एव क्षेत्रज्ञो धर्मसे युक्त होना ही उसका संसारित्व है, इसलिये यह न संसारी इति एतद् अयुक्तम् इति । तद् न, संसारी नहीं है' सो तुम्हारा ऐसा मानना युक्तियुक्त नहीं कहना ठीक नहीं है कि ईश्वर ही क्षेत्रज्ञ है और वह यथा करणे चक्षुषि विपरीतग्राहकादिदोपस्य है, क्योंकि नेत्ररूप करण विपरीत ग्राहकता आदि दोष देखे जाते हैं तो भी वे विपरीतादि-ग्रहण या उनके दर्शनाद् न विपरीतादिग्रहणं तन्निमित्तो का कारणरूप लिभिरादि दोष ज्ञाताके नहीं हो जाते (उसी तैमिरिकत्वादिदोषो ग्रहीतुः। प्रकार देहके धर्म भी आत्माके नहीं हो सकते)। चक्षुषः संस्कारेण तिमिरे अपनीते ग्रहीतुः तथा जैसे आंग्यका संस्कार करके तिमिरादि अदर्शनाद् न ग्रहीतुः धर्मो यथा तथा सर्वत्र प्रतिबन्धको हटा देनेपर ग्रहीता पुरुषमें वे दोषः नहीं देखे जाते, इसलिये वे ग्रहीता पुरुषके धर्म एवं अग्रहणविपरीतसंशयप्रत्ययाः तन्निमित्ता नहीं हैं, वैसे ही अग्रहण, विपरीत-ग्रहण और करणस्य एव कस्यचिद् भवितुम् अर्हन्ति न संशय आदि प्रत्यय तथा उनके कारणरूप तिमिरादि दोपभी सर्वत्र किसी-न-किसी करणके ही हो सकते है--ज्ञाता पुरुषके अर्थात् क्षेत्रज्ञके नहीं। संवेद्यत्वात् च तेषां प्रदीपप्रकाशवद् न इसके सिवा वे जानने में आनेवाले (ज्ञानके विषय) होने से भी दीपकके प्रकाशकी भाँति ज्ञाताके धर्म नहीं ज्ञातृधर्मत्वम् । संवेद्यत्वाद् एव स्वात्म- हो सकते। क्योंकि वे ज्ञेय है इसलिये अपनेसे व्यतिरिक्तसंवेद्यत्वम् । अतिरिक्त किसी अन्यद्वारा जाननमें आनेवाले हैं। सर्वकरणवियोगे च कैवल्ये सर्ववादिभिः सभी आत्मवादी समस्त करणोंसे आत्माका वियोग होनेके उपरान्त कैवल्य अवस्था में आत्माको अविद्यादि अविद्यादिदोषवत्त्वानभ्युपगमात् । आत्मनो दोषोंसे रहित मानते हैं, इससे भी ( उपर्युक्त सिद्धान्त यदि क्षेत्रज्ञस्य अग्न्युष्णवत् खो धर्मः ततो ही सिद्ध होता है ) क्योंकि यदि अग्निकी उष्णताके समान ये (सुख-दुःखादि दोष) क्षेत्र आत्माके अपने न कदाचिद् अपि तेन वियोगः स्यात् । धर्म हों तो उनसे उसका कभी वियोग नहीं हो सकेगा। अविक्रियस्य च व्योमवत् सर्वगतस्य इसके सिवा आकाशकी भाँति सर्वव्यापक, भूर्ति- अमूर्तस्य आत्मनः केनचित् संयोगवियोगा- रहित, निर्विकार, आत्माका किसीके साथ संयोग- वियोग होना सम्भव नहीं है, इससे भी क्षेत्रकी नुपपत्तेः। सिद्ध क्षेत्रज्ञस्य नित्यम् एव ईश्वरत्वम् । ! नित्य ईश्वरता ही सिद्ध होती है । ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य ।