पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३०९

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EMORERNMENTSIONERCISFAMITRASARDAR 5-63, VI... कस्टम merciationwates --...-...-.-:-....--. शांकरभाष्य अध्याय १३ .. उ०- 'अनादित्वाभिर्गुणत्वात्' इत्यादि ईश्वर- तथा अनादित्वानिर्गुणत्वात्' इत्यादि भगवान्के वचनान् च । वचनोंसे भी क्षेत्रका नित्य ईश्वरत्व ही सिद्ध होता है। ननु एवं सुति संमारसंसारित्वाभावे यू०-ऐसा मान लेने पर तोसंसार और संसारित्वका शास्त्रानर्थस्थादिदोपः स्याद् इति । अभाव हो जानेके कारण शास्त्रको व्यर्थता आदि दोष उपस्थित होंगे? न; सर्वैः अभ्युपगतत्वात् । सर्वैः हि नहीं, क्योंकि यह दोष तो सभीने खीकार आत्मवादिभिः अभ्युपगतो दोषो न एकेन किया है। सभी आत्मवादियोंद्वारा स्वीकार किये हुए दोषका किसी एकके लिये ही परिहार करना परिहर्तव्यो भवति । आवश्यक नहीं है। कथम् अभ्युपगत इति । पू०-इसे सबने कैसे स्वीकार किया है ? मुक्तात्मनां संसारसंसारित्वव्यवहाराभावः उ०-सभी आत्मवादियोंने मुक्त आत्मामें संसार सर्वैः एव आत्मवादिभिः इष्यते । न च तेषां और संसारीपनके व्यवहारका अभाव माना है, शास्त्रानर्थक्यादिदोषप्राप्तिः परन्तु (इससे) उनके मतमें शास्त्रकी अनर्थकता आदि अभ्युपगता दोषोंकी प्राप्ति नहीं मानी गयी। तथा नः क्षेत्रज्ञानाम् ईश्वरैकत्वे सति जैसे समस्त द्वैतवादियोंके मतसे बन्धावस्थामें शास्त्रानर्थक्यं भवतु । अविद्याविषये च ही शास्त्र आदिकी सार्थकता है मुक्त-अवस्था में नहीं, वैसे ही हमारे मतमें भी जीवोंकी ईश्वरके साथ अर्थवत्त्वम् । यथा द्वतिनां सर्वेषां बन्धावस्थायाम् एकता हो जानेपर यदि शास्त्रकी व्यर्थता होती हो एव शास्त्राधर्थवत्त्वं न मुक्तावस्थायाम् एवम् । तो हो, अविद्यावस्थामें तो उसकी सार्थकता है ही। ननु आत्मनो बन्धमुक्तावस्थे परमार्थत पू०-हम सब इंतवादियोंके सिद्धान्तसे तो एव. वस्तुभूते द्वैतिनाम् नः सर्वेषाम्, अतो आत्माकी बन्धावस्था और मुक्तावस्था वास्तवमें ही सच्ची है ! अतः वे हेय, उपादेय हैं और उनके सब हेयोपादेयतत्साधनसद्भावे शाखाद्यर्थवत्वं सावन भी सत्य हैं इस कारण शास्त्रकी सार्थकता स्यात्, अद्वैतिनां पुनः द्वैतस्य अपरमार्थत्वाद् हो सकती है। परन्तु अद्वैतवादियोंके सिद्धान्तसे तो द्वैतभाव अविद्या-जन्य और मिथ्या है, अतः अविद्याकृतत्वाद् बन्धावस्थायाः च आत्मनः आत्मामें बन्धावस्था भी वास्तवमें नहीं है, इसलिये अपरमार्थत्वे निर्विषयत्वात् शास्त्राद्यानर्थक्यम् शास्त्रका कोई विषय न रहनेके कारण शास्त्र आदि- इति चेत् । की व्यर्थताका दोष आता है । न, आत्मनः अवस्थाभेदानुपपत्तेः । यदि उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्माके तावद् आत्मनो बन्धमुक्तावस्थे युगपत् स्यातां अवस्थाभेद सिद्ध नहीं हो सकते, यदि (आत्मामें इनका होना ) मान भी लें तो आत्माकी ये बन्ध और मुक्त क्रमेण वा। दोनों अवस्थाएँ एक साथ होनी चाहिये या क्रमसे? त