पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१०

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श्रीमद्भगवद्गीता युगपत् तावद् विरोधाद् न संभवतः स्थिति और गतिकी भाँति परस्परविरोध होनेके कारण दोनों अवस्थार एक साथ तो एकमें स्थितिगती इव एकस्मिन् । क्रमभावित्वे हो हो नहीं सकतीं । यदि कमसे होना मानें तो बिना च निनिमित्तत्वे अनिर्मोक्षप्रसङ्गः अन्य- ! निमित्तके बन्धावस्थाका होना माननेसे तो उससे निमित्त्वे च स्वतः अभावाद् अपरमार्थ- कभी छुटकारा न होनेका प्रसंग आ जायगा और किसी निमित्तसे उसका होना माने तो खतः न त्वप्रसङ्गः । तथा च सति अभ्युपगमहानिः होनेके कारण वह मिथ्या ठहरती है। ऐसा होने- पर स्वीकार किया हुआ सिद्धान्त कट जाता है । किं च बन्धमुक्तावस्थयोः पौर्वापर्य- इसके सिवा बन्धावस्था और मुक्तावस्थाका आगा- निरूपणायां वन्धावस्था पूर्व प्रकल्प्या अनादि- | पीला निरूपण किया जानेपर पहले बन्धावस्थाका होना माना जायगा तथा उसे आदिरहित और मती अन्तवती च तत् च प्रमाणविरुद्धं तथा अन्तयुक्त मानना पड़ेगा; सो यह प्रमाणविरुद्ध है, ऐसे मोक्षावस्था आदिमती अनन्ता च प्रमाणविरुद्धा ही मुक्तावस्थाको भी आदियुक्त और अन्तरहित एच अभ्युपगम्यते । प्रमाणविरुद्ध ही मानना पड़ेगा। न च अवस्थावतः अवस्थान्तरं गच्छतो तथा आत्माको अवस्थावाला और एक अवस्थासे दृसरी अवस्था में जानेवाला मानकर उसका नित्यत्व नित्यत्वम् उपपादयितुं शक्यम् । सिद्ध करना भी सम्भव नहीं है। अथ अनित्यत्वदोपपरिहाराय बन्धमुक्ता- जब कि आत्मामें अनित्यत्वके दोपका परिहार करनेके लिये बन्धावस्था और मुक्तावस्थाके भेदकी वस्थाभेदो न कल्प्यते अतो द्वैतिनाम् अपि कल्पना नहीं की जा सकती । इसलिये द्वैतवादियों- शास्त्रानर्थक्यादिदोषः अपरिहार्य एव इति के मतसे भी शास्त्रकी व्यर्थता आदि दोष अबाध्य ही समानत्वाद् न अद्वैतवादिना परिहर्तव्यो दोषः। हैं । इस प्रकार दोनोंके लिये समान होने के कारण इस दोषका परिहार केवल अद्वैतवादियोंद्वारा ही किया जाना आवश्यक नहीं है। च शास्त्रानर्थक्यं यथाप्रसिद्धा- (हमारे मतानुसार तो वास्तवमें) शास्त्रकी व्यर्थता विद्वत्पुरुषविषयत्वात् शास्त्रस्य । अविदुषां है भी नहीं, क्योंकि शास्त्र लोकप्रसिद्ध अज्ञानीका ही हि फलहेत्वोः अनात्मनोः आत्मदर्शनम्, न | विषय है । अज्ञानियोंका ही फल और हेतुरूप*अनात्म- विदुषाम् । वस्तुओंमें आत्मभाव होता है, विद्वानोंका नहीं । विदुषां हि फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्व- क्योंकि विद्वान्की बुद्धि में फल और हेतुसे आत्मा- दर्शने सति तयोः अहम् इति आत्मदर्शना- का पृथक्य प्रत्यक्ष है, इसलिये उसका उन (अनात्म-पदार्थों ) में 'यह मैं हूँ ऐसा आत्मभाव नुपपत्तेः। नहीं हो सकता।

  • जाति, आयु और भोगका नाम फल है, और शुभाशुभ कर्म उसके हेतु यानी कारण हैं।