पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३२

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शांकरभाष्य अध्याय २ 'तेभ्यो व्युत्थाय प्रव्रजन्ति' (बृ०४१४१२२) "उन सब (काँ) से निवृत्त होकर संन्यास ग्रहण करते हैं। इस कथनसे केवल आत्मलोकक इति व्युत्थानम् आत्मानम् एव लोकम् इच्छतः चाहनेवाले निष्कामी पुरुषके लिये संन्यासका है अकामस्य विहितम् । विधान किया है। तत् एतत् विभागवचनम् अनुपपन्न स्थान यदि (इसपर भी यह बात मानी जायगी कि) यदि श्रौतकर्मज्ञानयोः समुच्चयः अभिप्रेतः भगवान्को श्रौतकर्म और ज्ञानका समुञ्चय इष्ट है तो यह उपर्युक्त विभक्त विवेचन अयोग्य ठहरेगा। न च अर्जुनस्य प्रश्न उपपन्नो भवति तथा (ऐसा मान लेनेसे) ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते'. 'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते' इत्यादिः। इत्यादि जो अर्जुनका प्रश्न है वह भी नहीं स्यात् भगवतः। बन सकता। एकपुरुषानुप्ठेयत्वासंभव बुद्धिकर्मणोः यदि ज्ञान और कर्मका एक पुरुषद्वारा एक साथ भगवता पूर्वम् अनुक्तं कथम् अर्जुनः अश्रुतं श्रेष्ठत्व भगवान्ने पहले न कहा होता, तो इस किया जाना असम्भव और कर्मकी अपेक्षा ज्ञानका बुद्धेःच कर्मणोज्यायस्त्वं भगवति अध्यारोपयेत् | तरह अर्जुन बिना सुनी हुई. बातका झूठे ही मृषा एव 'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः' इति । भगवान्में अध्यारोप कैसे करता कि 'ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता वुद्धि' किं च यदि बुद्धिकर्मणोः सर्वेषां समुच्चय यदि सभीके लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय उक्त स्थात् अर्जुनस्य अपि स उक्त एव इति- कहा होता तो अर्जुनके लिये भी यह कहा हो गया था, “यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्' इति फिर दोनोंका समुचित उपदेश होते हुए 'यच्छ्रेय : कथम् उभयो उपदेशे सति अन्यतरविषयः एच एतयोरेक तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्' इस प्रकार प्रश्नः स्यात् । दोनोंमेंसे एकके ही सम्बन्धमें प्रश्न कैसे होता ? न हि पित्तप्रशमनार्थिनो वैद्येन मधुरं क्योंकि पित्तकी शान्ति चाहनेवालेको वैद्यके शीतं च भोक्तव्यम् इति उपदिष्टे तयोः अन्यतरत द्वारा यह उपदेश दिया जानेपर कि, मधुर और शीत पदार्थ सेवन करना चाहिये, रोगीका यह प्रश्न पित्तप्रशमनकारणं बेहि इति प्रश्नः संभवति । नहीं बन सकता कि उन दोनोंमेंसे किसी एकको ही पित्तकी शान्तिका उपाय बतलाइये । अथ अर्जुनस्य भगवदुक्तवचनार्थविवेका- यदि ऐसी कल्पना की जाय कि भगवान्द्वारा नवधारणनिमित्तः प्रश्नः कल्प्येत, तथापि कहे हुए वचन न समझनेके कारण अर्जुनने प्रश्न किया भगवता प्रश्नानुरूपं प्रतिवचनं देयम्, मया है, तो फिर भगवान्को प्रश्नके अनुरूप ही यह उत्तर बुद्धिकर्मणोः समुच्चय उक्तः किमर्थम् इत्थं त्वं देना चाहिये था कि मैंने तो ज्ञान और कर्मका समुच्चय भ्रान्तः असि इति । बतलाया है, तू ऐसा भ्रान्त क्यों हो रहा है ? न तु पुनः प्रतिवचनम् अननुरूपं पृष्टात् परन्तु प्रश्नसे विपरीत दूसरा ही उत्तर देना कि अन्यत् एव द्वे निष्डे मया पुरा प्रोक्ते इति मैंने दो निष्ठाएँ पहले कही हैं (उपर्युक्त कल्पनाके) वक्तु युक्तम् उपयुक्त नहीं है। 3