पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३११

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RRESTERIEप्राROWNIORIES NEPAwastaking Pretreamin-..'.... शांकरभाष्य अध्याय १३ न हि अत्यन्तमूढ उन्मत्तादिः अपि अत्यन्त नृढ़ और उन्मत्त आदि भी जल और जलाग्न्योः छायाप्रकाशयोः वा ऐकात्म्यं अग्निकी, या छाया और प्रकाशकी. एकता नहीं पश्यति किलुत विवेकी। मानते, फिर विवेकीकी तो बात ही क्या है ? न विधिप्रतिषेधशास्त्रं तावन् सुतरां पाल और हेतुसे आत्माको भिन्न समझ लेने- वाले ज्ञानी के लिये विधि-निषेध-विषयक शास्त्र फलहेतुभ्याम् आत्मनः अन्यत्वदर्शिनो भवति । न हि देवदत्त त्वम् इदं कुरु इति कस्मिंश्चित् जैसे 'हे देवदत्त ! तू अमुक कार्य कर' कर्मणि नियुक्त विष्णुमित्रः अहं नियुक्त इति जानेपर वहीं खड़ा हुआ विष्णुमित्र उस नियुक्तिको इस प्रकार किसी कर्ममें ( देवदत्तके ) नियुक्त किये तत्रस्थो नियोगं शृण्वन् अपि प्रतिपद्यते । । सुनकर भी, यह नहीं समझता कि मैं नियुक्त किया गया हूँ। हाँ, नियुक्तिविषयक विवेकका स्पष्ट नियोगविषयविवेकाग्रहणात् तु उपपद्यते प्रति- । ग्रहण न होनेसे तो ऐसा समझना ठोक हो सकता है, पत्तिः तथा फलहेत्वोः अपि । इसी प्रकार. फल और हेतुमें भी (अज्ञानियोंकी आत्म- बुद्धि हो सकती हैं )। ननु प्राकृतसंबन्धापेक्षया युक्ता एवं प्रति- पू०-फल और हेतुसे आत्माके पृथक्त्वका ज्ञान पत्तिः शास्त्रार्थविषया फलहेतुभ्याम् अन्यात्मस्त्र- हो जानेपर भी, स्वाभाविक सम्बन्धकी अपेक्षासे शास्त्रविषयक इतना बोध होना तो युक्तियुक्त ही है दर्शने अपि सति इष्टफलहेतौं प्रवर्तितः अस्मि कि, 'मैं शास्त्रद्वारा अनुकूल फल और उसके हेतुमें तो अनिष्टफलहेतोः च निवर्तितः अस्मि इति । प्रवृत्त किया गया हूँ और प्रतिकूल फल और यथा पितृपुत्रादीनाम् इतरेतरात्मान्यत्वदर्शने उसके हेतुसे निवृत्त किया गया हूँ, जैसे कि पिता- पुत्र आदिका आपसमें एक दूसरेको भिन्न समझते सति अपि अन्योन्यनियोगप्रतिषेधार्थ हुए भी एक दूसरे के लिये किये हुए नियोग और प्रतिपत्तिः । प्रतिषेधको अपने लिये समझना देखा जाता है। न, व्यतिरिक्तात्मदर्शनप्रतिपत्तेः प्राग् एव उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि आत्माके फलहेत्वोः आत्माभिमानस्य सिद्धत्वात् । पृथक्त्वका ज्ञान होनेसे पहले-पहले ही फल और हेतुमें ! आत्माभिमान होना सिद्ध है। नियोग और प्रतिषेधके प्रतिपन्ननियोगप्रतिषेधार्थो हि फलहेतुभ्याम् अभिप्रायको भलीप्रकार जानकर ही मनुष्य फल आत्मनः अन्यत्वं प्रतिपद्यते न पूर्वम्, तस्माद् और हेतुसे आत्माके पृथक्त्यको जान सकता है, विधिप्रतिषेधशास्त्रम् अविद्वद्विषयम् इति उससे पहले नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि विधि- सिद्धम् । निषेधरूप शास्त्र केवल अज्ञानीके लिये ही है। 'स्वर्गकामो यजेत 'कलझं न भक्षयेत् पू०-(इस सिद्धान्तके अनुसार) 'स्वर्गकी इत्यादौ आत्मव्यतिरेकदर्शिनाम् अप्रवृत्तौ कामनावाला यज्ञ करे' 'मांस भक्षण न करे इत्यादि विधि-निषेध-बोधक शास्त्र-वचनोंमें आत्माका पृथक्त्व जाननेवालोंकी और केवल देहात्मवादियोंकी .