पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१२

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श्रीमद्भगवद्गीता केवलदेहाद्यात्मदृष्टीनां च, अतः कर्तुः अभावात् भी प्रवृत्ति न होनेसे कर्ताका अभाव हो जाने के शास्त्रानर्थक्यम् इति चेत् । कारण शास्त्रके व्यर्थ होनेका प्रसंग आ जायगा ? न, यथाप्रसिद्धित एव प्रवृत्तिनिवृत्त्युपपत्तेः। उ०-यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि प्रवृत्ति और निवृत्तिका होना लोकप्रसिद्धिसे ही प्रत्यक्ष है। ईश्वरक्षेत्रज्ञैकत्वदर्शी ब्रह्मवित् तावद् न ईश्वर और जीवात्माकी एकता देखनेवाला ब्रह्मवेत्ता कमों में प्रवृत्त नहीं होता तथा आत्मसत्ताको प्रवर्तते । तथा नैरात्म्यवादी अपि न अस्ति न माननेवाला देहात्मवादी भी 'परलोक नहीं हैं ऐसा परलोक इति न प्रवर्तते । यथाप्रसिद्धितः तु : समझकर शास्त्रानुसार नहीं बर्तता यह ठीक है परन्तु लोकप्रसिद्धिसे यह तो हम सबको प्रत्यक्ष है ही विधिप्रतिषेधशास्त्रश्रवणान्यथानुपपत्त्या अनु- कि विधि-निषेध-बोधक शास्त्र-श्रवणकी दूसरी तरह उपपत्ति न होनेके कारण जिसने आत्माके अस्तित्वका मितात्मास्तित्व आत्मविशेषानभिज्ञः कर्मफल- अनुमान कर लिया है, एवं जो आत्माके असली तत्त्व- संजातवृष्णः श्रद्दधानतया च प्रवर्तते इति का ज्ञाता नहीं है, जिसकी कोंके फलमें तृष्णा है, ऐसा मनुष्य श्रद्धालुताके कारण (शास्त्रानुसार कमोंमें) सर्वेषां नः प्रत्यक्षम्, अतो न शास्त्रानर्थक्यम् । प्रवृत्त होता है। अतः शास्त्रकी व्यर्थता नहीं है । विवेकिनाम् अप्रवृत्तिदर्शनात् तदनुगामिनाम्। पू०- विवेकशील पुरुषोंकी प्रवृत्ति न देखनेसे, उनका अनुकरण करनेवालोंकी भी ( शास्त्रविहित अप्रवृत्तौ शास्त्रानर्थक्यम् इति चेत् । कर्मोंमें) प्रवृत्ति नहीं होगी अतः शास्त्र व्यर्थ हो जायगा। न, कस्यचिद् एव विकोपपत्तेः । अनेकेषु उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि किसी हि प्राणिषु कश्चिद् एव विवेकी स्याद् यथा एकको ही विवेकज्ञान प्राप्त होता है । अर्थात् अनेक प्राणियोंमेंसे कोई एक ही विवेकी होता है इदानीम् । ! जैसा कि आजकल ( देखा जाता है)। न च विवेकिनम् अनुवर्तन्ते मृदा रागादि- इसके सिवा मूढ़ लोग विवेकियोंका अनुकरण भी नहीं करते, क्योंकि प्रवृत्ति रागादि दोषोंके दोषतन्त्रत्वात् प्रवृत्तेः । अभिचरणादो च अधीन हुआ करती है। (प्रतिहिंसाके उद्देश्यसे किये प्रवृत्तिदर्शनात् । स्वाभाव्यात् च प्रवृत्तः। जानेवाले जारण-मारण आदि) अभिचारोंमें भी लोगोंकी प्रवृत्ति देखी जाती है, तथा प्रवृत्ति 'स्वभावः तु प्रवर्तते' इति हि उक्तम् । खाभाविक है। यह कहा भी है कि स्वभाव ही वर्तता है।' तस्माद् अविद्यामानं संसारो यथादृष्टविषय सुतरां यह सिद्ध हुआ कि संसार अविद्यामात्र ही एव । न क्षेत्रज्ञस्य केवलस्य अविद्या तत्कार्य च। है और वह अज्ञानियोंका ही विषय है । केवल-शुद्ध | क्षेत्रज्ञमें अविद्या और उसके कार्य दोनों ही नहीं हैं।