पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१३

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शांकरभाष्य अध्याय १३ २६७ न च मिथ्याज्ञानं परमार्थवस्तु दूपगितुं तथा मिथ्याज्ञान परमार्थवस्तुको दृषित करने में समर्थम् । न हि उपरदेशं स्नेहन यङ्कीकतुं समर्थ भी नहीं है । क्योंकि जैसे उत्तर भूमिको शक्नोति मरीच्युदकं तथा अविद्या क्षेत्रज्ञस्य हुगतृष्णिकाका जल अपनी आईतासे कीचड्युक्त न किंचिन् कर्तुं शक्नोति । अतः च इदम् उक्तम् (उपकार या अपकार) करनेमें समर्थ नहीं है, इसीलिये नहीं कर सकता, वैसे ही अविद्या भी क्षेत्रका कुछ भी 'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि' 'अज्ञानेनावृतं ज्ञानम् क्षेत्रनं चापि मां विद्धि' और 'अज्ञानेनावृतं इति च। ज्ञानम् यह कहा है। अथ किम् इदं संसारिगाम् इव अहम् एवं पू०-तो फिर यह क्या बात है कि संसारी पुरुषोंकी भाँति पण्डितों को भी 'मैं ऐसा हूँ 'यह बस्तु मम एव इदम् इति पण्डितानाम् अपि । मेरी ही है। ऐसी प्रतीति होती है । शृणु इदं तत् पाण्डित्यं यत् क्षेत्रे एव आत्म-! 6-सुनो, यह पाण्डित्य बस इतना ही है जो कि क्षेत्रमें हीआत्माको देखना है परन्तु यदि मनुष्य दर्शनम् । यदि पुनः क्षेत्रज्ञम् अविक्रियं पश्येयुः । क्षेत्रज्ञको निर्विकारी समझ ले तो फिर मुझे अमुक ततो न भोगं कर्म का आकाङ्केयुः मम स्वाद भोग मिले' या 'मैं अमुक कर्म करूँ' ऐसी आकांक्षा नहीं कर सकता, क्योंकि भोग और कर्म दोनों इति । विक्रिया एव भोगकर्मणी। विकार ही तो हैं। अथ एवं सति फलार्थित्वाद् अविद्वान् सुतरां यह सिद्ध हुआ कि फलेच्छुक होनेके प्रवर्तते । विदुपः पुनः अविक्रियात्मदर्शिनः रहित आत्माका साक्षात् कर लेनेवाले ज्ञानीमें कारण अज्ञानी कर्मों में प्रवृत्त होता है; परन्तु विकार- फलार्थित्वाभावात् प्रवृत्त्यनुपपत्ती कार्यकरण- फळेच्छाका अभाव होनेके कारण, उसकी प्रवृत्ति सम्भव नहीं, अतः कार्य-करण-संघातके व्यापारी संघातव्यापारोपरमे निवृत्तिः उपचर्यते । निवृत्ति होनेपर उस ( ज्ञानी) में निवृत्तिका उपचार किया जाता है। इदं च अन्यत् पाण्डित्यं कस्यचिद् अस्तु किसी-किसीके मतमें यह एक प्रकारकी विद्वत्ता और क्षेत्रज्ञ ईश्वर एव क्षेत्रं च अन्यत् क्षेत्रज्ञस्य भी हो सकती है कि, क्षेत्रज्ञ तो ईश्वर ही है, और उस विषयः । अहं तु संसारी सुखी दुःखी च । क्षेत्रशके ज्ञानका विषय क्षेत्र उससे अलग है तथा मैं तो (उन दोनोंसे भिन्न) संसारी और सुखी-दुःखी भी हूँ, संसारोपरमः च मम कर्तव्यः क्षेत्रक्षेत्रज्ञ- मुझे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञके ज्ञान और ध्यानद्वारा ईश्वररूप विज्ञानेन ध्यानेन च ईश्वरं क्षेत्रज्ञं साक्षात् क्षेत्रका साक्षात् करके उसके स्वरूपमें स्थित होना- कृत्वा तत्स्वरूपावस्थानेन इति । रूप साधनसे संसारकी निवृत्ति करनी चाहिये। यः च एवं बुध्यते याच बोधयति न जो ऐसा समझता है या दूसरेको ऐसा समझाता असौ क्षेत्रज्ञ इति । एवं मन्वानो यः स है कि 'वह (जीव) क्षेत्रज्ञ (ब्रह्म) नहीं है' तया जो यह मानता है कि मैं ( इस प्रकारके सिद्धान्तसे) संसार, पण्डितापसदः संसारमोक्षयोः शास्त्रस्य च मोक्ष और शास्त्रकी सार्थकता सिद्ध करूँगा, वह अर्थवत्त्वं करोमि इति । पण्डितोंमें अधम है। i