पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१६

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0 श्रीमद्भगवद्गीता अप्रत्यक्षेण अविद्यावता अविद्यासंबन्धे! उ०-अप्रत्यक्ष अविद्यावान्के साथ अविद्याका ज्ञाते किं तव स्यात् । | सम्बन्ध जान लेनेसे तुम्हें क्या मिलेगा? अविद्याया' अनर्थहेतुत्वात् परिहर्तव्या पू०-अविद्या अनर्थकी हेतु है, इसलिये उसका स्यात् । त्याग किया जा सकेगा। यस्य अविद्या स तां परिहरिष्यति उ०-जिसमें अविद्या है, वह उसका स्वयं त्याग कर देगा। ननु मम एव अविद्या । पू०-मुझमें ही तो अविद्या है । जानासि तर्हि अविद्यां तद्वन्तं च आत्मानम् । उ-तन्त्र तो तू अविद्या और उससे युक्त अपने आपको जानता है। जानामि न तु प्रत्यक्षेण । पू०-जानता तो हूँ परन्तु प्रत्यक्षरूपसे नहीं । अनुमानेन चेद् जानासि कथं संबन्ध- उ.--यदि अनुमानसे जानता है तो ( तुझ ज्ञाता और अविद्याके) सम्बन्धका ग्रहण कैसे हुआ ? ग्रहणम् । न हि तव ज्ञातुः ज्ञेयभूतया क्योंकि उस समय (अविद्याको अनुमानसे जाननेके कालमें) तुझ ज्ञाताका क्षेयरूप अविद्याके साथ अविद्यया तत्काले संवन्धो ग्रहीतुं शक्यते । सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया जा सकता, कारण अविद्याया विषयत्वेन एव ज्ञातुः उपयुक्तत्वात् । यह है कि ज्ञाताका विषय मानकर ही अविद्याका उपयोग किया गया है। न च ज्ञातुः अविद्यायाः च संवन्धस्य तथा ज्ञाता और अविद्याके सम्बन्धको जो ग्रहण करनेवाला है वह तथा उस ( अविद्या और ज्ञाताके यो ग्रहीता ज्ञानं च अन्यत् तद्विषयं संभवति । सम्बन्ध ) को विषय करनेवाला कोई दूसरा ज्ञान अनवस्थाप्राप्तेः । यदि ज्ञाता अपि ज्ञेयसंबन्धो अनवस्थादोष प्राप्त होता है अर्थात् यदि ज्ञाता और ये दोनों ही सम्भव नहीं हैं । क्योंकि ऐसा होनेसे ज्ञायेत अन्यो ज्ञाता कल्प्यः स्यात् तस्य ज्ञेय-ज्ञाताका सम्बन्ध ये भी ( किसीके द्वारा )जाने जाते हैं, ऐसा माना जाय तो उसका ज्ञाता किसी अपि अन्यः तस्य अपि अन्य इति अनवस्था औरको मानना होगा । फिर उसका भी दूसरा और उसका भी दूसरा ज्ञाता मानना होगा, इस अपरिहार्या। प्रकार यह अनवस्था अनिवार्य हो जायगी। यदि पुनः अविद्या ज्ञेया अन्यद् वा ज्ञेयं परन्तु ज्ञेय चाहे अविद्या हो अथवा और कुछ हो, ज्ञेयम् एव तथा ज्ञाता अपि ज्ञाता एव न ज्ञेयं ज्ञेय ज्ञेय ही रहेगा ( ज्ञाता नहीं हो सकता) वैसे ही ज्ञाता भी ज्ञाता ही रहेगा, ज्ञेय नहीं हो सकता, जब भवति । यदा च एवम् अविद्यादुःखित्वाचः कि ऐसा है तो अविद्या या दुःखित्व आदि दोघोंसे न ज्ञातुः क्षेत्रज्ञस्य किंचिद् दुष्यति । ज्ञाता--क्षेत्रज्ञका कुछ भी दृषित नहीं हो सकता । ननु अयम् एव दोषो यद् दोषवत्क्षेत्र- पू०-यही उसका दोष है जो कि वह दोष-युक्त विज्ञातृत्वम् । क्षेत्रका ज्ञाता है।