पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३१७

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शांकरभाष्य अध्याय १३ ३०१ - H न, विज्ञानस्वरूपस्य एवं अविक्रियस उ०-यह कहना ठीक नहीं। क्योंकि आत्मा विज्ञानस्वरूप और अविक्रिय है, उसमें (इस)ज्ञातापन- विज्ञातृत्वोपचारात् । यथा उष्णतामात्रेण अग्नेः : का उपचारमात्र किया जाता है, जैसे कि उष्णता- मात्र स्वभाव होनेसे अग्निमें तपानेकी क्रियाका तप्तिक्रियोपचारः तद्वत् । उपचार किया जाता है। यथा अत्र भगवता क्रियाकारकफलात्म- जैसे भगवान्ने यहाँ (इस प्रकरणों) यह दिखाया स्वाभाव आत्मनि स्वत एव दर्शितः अविद्याध्या- ! है कि आत्मामें स्वभावसे ही क्रिया, कारक और फलात्मत्वका अभाव है, केवल अविद्याद्वारा अध्यारोपित रोपितैः एव क्रियाकारकादि आत्मनि उपचर्यते होनेके कारण क्रिया, कारक आदि आत्मामें उपचरित तथा तत्र तत्र 'य एनं वेत्ति हन्तारम्' 'प्रकृतेः होते हैं वैसे ही, जो इसे मारनेवाला जानता क्रियमाणानि गुणैः कणि सर्वशः' 'नादत्ते है 'प्रकृतिके गुणोंद्वारा ही सब कर्म किये जाते हैं' (वह विभु)किसीके पाप-पुण्यको ग्रहण नहीं करता कस्यचित्पापम्' इत्यादिप्रकरणेषु दर्शितः तथा इत्यादि प्रकरणोंने जगह-जगह दिखाया गया है और एव च व्याख्यातम् अस्माभिः । उत्तरेषु च इसी प्रकार हमने ब्याख्या भी की है, तथा आगेके प्रकरणेषु दर्शयिष्यामः। प्रकरगोंमें भी हम दिखलायेंगे। हन्त तर्हि आत्मनि क्रियाकारकफलात्म- 10-तब तो आत्मामें स्वभावसे क्रिया, कारक और तायाः स्वतः अमावे अविद्यया च अध्यारोपि- फलात्मत्वका अभाव सिद्ध होनेसे तथा ये सब अविद्या- तत्वे कर्माणि अविद्वत्कर्तव्यानि एव न द्वारा अध्यारोपित सिद्ध होनेसे यही निश्चय हुआ विदुषाम् इति प्राप्तम् । कि कर्म अविद्वान्को हो कर्तव्य है, विद्वान्को नहीं । सत्यम् एवं प्राप्तम्,एतद् एव च न हि देहभृता ०-ठीक यही सिद्ध हुआ । इसी बातको हम 'नहि देहभृताशक्यम्' इस प्रकरणमें और सारे शक्यम् इति अत्र दर्शयिष्यामः । सर्वशास्त्रार्थो- गीता-शास्त्रके उपसंहार-प्रकरणमें दिखलायेंगे । तथा पसंहारप्रकरणे च "समासेनैव कौन्तेय निष्ठा 'समासेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा' इस श्लोकके अर्थ में विशेषरूपसे दिखायेंगे । बस, शानस्य या परा' इति अत्र विशेषतो दर्शयिष्यामः । यहाँ अब और अधिक विस्तारकी आवश्यकता नहीं अलम् इह बहुप्रपञ्चेन इति उपसंहियते ॥२॥ | है, इसलिये उपसंहार किया जाता है ॥२॥ उ०- 'इदं शरीरम्' इत्यादि श्लोकोपदिष्टस्य क्षेत्रा- 'इदं शरीरम्' इत्यादि श्लोकोंद्वारा उपदेश किये ध्यायार्थस्य संग्रहश्लोकः अयम् उपन्यस्यते तत् हुए क्षेत्राध्यायके अर्थका संक्षेपरूप यह 'तत्क्षेनं यच्च' इत्यादि श्लोक कहा जाता है, क्योंकि जिस क्षेत्रं यत् च इत्यादि व्याचिख्यासितस्य हि अर्थका विस्तारपूर्वक वर्णन करना हो, उसका अर्थस्य संग्रहोपन्यासो न्याय्य इति- संक्षेप पहले कह देना उचित ही है.. तत्क्षेत्रं यच्च याक्च यद्विकारि यतश्च यत् । स च यो यत्प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ ३ ॥