पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३

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श्रीमद्भगवद्गीता न अपि स्मार्तेन एव कर्मणा बुद्धेः समुच्चये इसके सिवा यदि केवल स्मार्त-कर्मके साथ ही अभिप्रेते विभागवचनादि सर्वम् उपपन्नम् । | ज्ञानका समुच्चय माना जाय तो भी विभक्त वर्णन आदि सब उपयुक्त नहीं ठहरते । किं च क्षत्रियस्य युद्धं सात कर्म स्वधर्म इति तथा ऐसा माननेसे युद्धरूप स्मार्त-कर्म क्षत्रियका जानतः तत्ति कर्मणि घोरे मां नियोजयसि खधर्म है,यह जाननेवाले अर्जुनका इस प्रकार उलाहना देना भी नहीं बन सकता कि 'तत् किं कर्मणि इति उपालम्भः अनुपपन्नः । घोरे मां नियोजयसि' तस्मात् गीताशास्त्र ईषन्मात्रेण अपि श्रौतेन सुतरां यह सिद्ध हुआ कि गीताशास्त्र में किञ्चित्- स्मार्तेन वा कर्मणा आत्मज्ञानस्य समुच्चयो न । मात्र भी श्रौत या स्मार्त किसी भी कर्मके साथ केनचित् दर्शयितुं शक्यः। आत्मज्ञानका समुच्चय कोई भी नहीं दिखा सकता। यस्य तु अज्ञानात् रागादिदोषतो वा कर्मणि अज्ञानसे या आसक्ति आदि दोषोंसे कर्ममें लगे प्रवृत्तस्य यज्ञेन दानेन तपसा वा विशुद्धसत्त्वस्य | हुए जिस पुरुषको यज्ञसे, दानसे या तपसे अन्तः- करण शुद्ध होकर परमार्थ-तत्त्व-विषयक ऐसा ज्ञान ज्ञानम् उत्पन्नं परमार्थतत्त्वविषयम् एकम् एव प्राप्त हो जाता है कि यह सब एक ब्रह्म ही है और इदं सर्वं ब्रह्म अकर्ट च इति । वह अकर्ता है। तस्य कर्मणि कर्मप्रयोजने च निवृत्ते अपि उसके कर्म और फल दोनों ही यद्यपि निवृत्त हो लोकसंग्रहार्थं यत्नपूर्वं यथा प्रवृत्तः तथा एव चुकते हैं तो भी लोकसंग्रहके लिये पहलेकी भाँति कर्मणि प्रवृत्तस्य यत् प्रवृत्तिरूपं दृश्यते न तत् प्रवृत्तिरूप कर्म दीखा करता है, वह वास्तवमें कर्म नहीं यत्नपूर्वक कर्मों में लगे रहनेवाले ऐसे पुरुषका जो कर्म येन बुद्धः समुच्चयः स्यात् । है, जिससे कि ज्ञानके साथ उसका समुच्चय हो सके। यथा भगवतो वासुदेवस्य क्षात्रकर्मचेष्टितं जैसे भगवान् वासुदेवद्वारा किये हुए क्षात्रकों- का मोक्षकी सिद्धिके लिये ज्ञानके साथ समुच्चय न ज्ञानेन समुच्चीयते पुरुषार्थसिद्धये तद्वत् फला- नहीं होता वैसे ही फलेच्छा और अहंकारके अभावकी भिसंध्यहंकाराभावस्य तुल्यत्वात् विदुषः। समानता होनेके कारण ज्ञानीके कोका भी (ज्ञानके साथ समुच्चय नहीं होता)। तत्त्ववित् तु न अहं करोमि इति मन्यते क्योंकि आत्मज्ञानी न तो ऐसा ही मानता है कि मैं न च तत्फलम् अभिसंधत्ते । कर्ता हूँ और न उन कर्मोका फल ही चाहता है। यथा च स्वर्गादिकामार्थिनः अग्निहोत्रादि- इसके सिवा जैसे काम-साधनरूप अग्निहोत्रादि कर्मोंका अनुष्ठान करनेके लिये सकाम अग्निहोत्रादि- कामसाधनानुष्ठानाय आहितानः काम्ये एव में लगे हुए स्वर्गादिकी कामनाबाले अग्निहोत्रीकी अग्निहोत्रादौ प्रवृत्तस्य सामिकृते विनष्टे अपि कामना यदि आधा कर्म कर चुकनेपर नष्ट हो जाय और फिर भी उसके द्वारा वही अग्निहोत्रादि कर्म कामे तत् एव अग्निहोत्रादि अनुतिष्ठतः अपि न । होता रहे, तो भी वह काम्य-कर्म नहीं होता (वैसे तत्काम्यम् अग्निहोत्रादि भवति । ही ज्ञानीके कर्म भी कर्म नहीं हैं)।