पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३२०

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श्रीमद्भगवद्गीता RE इच्छा यजातीयं सुखहेतुम् अर्थ उपलब्धवान् इच्छा-जिस प्रकारके सुखदायक विषयका पूर्व पुनः तजातीयम् उपलभमानः तम् । पहले उपभोग किया हो, फिर वैसे ही पदार्थके प्राप्त होनेपर उसको सुखका कारण समझकर मनुष्य उसे आदातुम् इच्छति सुखहेतुः इति सा इयम् इच्छा | लेना चाहता है, उस चाहका नाम 'इच्छा' है, वह अन्तःकरणधर्मो ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम् । अन्तःकरणका धर्म है और ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र है। तथा द्वेषो यजातीयम् अर्थ दुःखहेतुत्वेन तथा द्वेष-जिस प्रकारके पदार्थको दुःखका कारण अनुभूतवान् पुनः तज्जातीयम् उपलभमानः समझकर पहले अनुभव किया हो, फिर उसी जातिके पदार्थके प्राप्त होनेपर जो उससे मनुष्य द्वेष करता है, तं द्वेष्टि सः अयं द्वेषो ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम् एव । उस भावका नाम 'ट्रेप' है, वह भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। तथा सुखम् अनुकूलं प्रसन्नं सत्त्वात्मकं उसी प्रकार सुख, जो कि अनुकूल, प्रसन्नतारूप ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम् एव । दुःखं प्रतिकूलात्मक और सात्त्विक है, ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है तथा प्रतिकूलतारूप दुःख भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ज्ञेयत्वात् तद् अपि क्षेत्रम् । ही है। संघातो देहेन्द्रियाणां संहतिः तस्याम् देह और इन्द्रियोंका समूह संघात कहलाता है । अभिव्यक्ता अन्तःकरणवृत्तिः तसे इवउसमें प्रकाशित हुई जो अन्तःकरणकी वृत्ति है जो कि 'अग्निसे प्रज्वलित लोहपिण्डकी भाँति' आत्म- लोहपिण्डे अग्निः आत्मचैतन्याभासरसविद्धा चैतन्यके आभासरूप रससे व्याप्त है, वह चेतना भी चेतना सा च क्षेत्रं ज्ञेयत्वात् । ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। धृतिः यया अवसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि व्याकुल हुए शरीर और इन्द्रियादि जिससे ध्रियन्ते सा च ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम् । धारण किये जाते हैं, वह धृति भी ज्ञेय होनेसे क्षेत्र ही है। सर्वान्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम् इच्छादि- | अन्तःकरणके समस्त धोका संकेत करने के लिये यहाँ इच्छादि धर्मोका ग्रहण किया गया है। ग्रहणम्, यत उक्तं तद् उपसंहरति- जो कुछ : कहा गया है, उसका उपसंहार करते हैं-- एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारं सह विकारेण महत्तत्त्वादि विकारोंके सहित क्षेत्रका यह स्वरूप महदादिना उदाहृतम् उक्तम् । यस्य क्षेत्रभेद- 'संक्षेपसे कहा गया । अर्थात् जिन समस्त क्षेत्रभेदोंका जातस्य संहतिः इदं शरीरं क्षेत्रम् इति उक्तं | समूह 'यह शरीर क्षेत्र है' ऐसे कहा गया है, तत् क्षेत्रं व्याख्यातं महाभूतादिभेदभिन्नं महाभूतोंसे लेकर धृतिपर्यन्त भेदोंसे विभिन्न हुए उस क्षेत्रकी व्याख्या कर दी गयी ॥६॥ न धृत्यन्तम् ॥६॥