पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३२३

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Post ariramaniamerikriment .......... शांकरभाष्य अध्याय १३ एवं जन्मादिषु दुःखदोपानुदर्शनाद् इस प्रकार जन्मादिमें दुःखरूप दोषको बारंवार देहेन्द्रियविषयभोगेषु वैराग्यम् उपजायते । ततः देखनेसे शरीर, इन्द्रिय और विषय-भोगोंने वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। उसले मन-इन्द्रियादिकरणों- प्रत्यगात्मनि प्रवृत्तिः करणानाम् आत्म- की आत्मसाक्षात्कार करने के लिये अन्तरात्मामें प्रवृत्ति. हो जाती है । इस प्रकार ज्ञानका कारण होनेसे दर्शनाय । एवं ज्ञानहेतुत्वाद् ज्ञानम् उच्यते जन्मादिमें दुःखरूप दोषकी बारंबार आलोचना जन्मादिदुःखदोषानुदर्शनम् ॥ ८॥ करना ज्ञान' कहा जाता है ॥ ८ ॥ किच- तथा- च असक्तिरनभिष्वङ्गः पुत्रदारगृहादिषु । नित्यं समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु ॥६॥ असक्तिः सक्तिः सङ्गनिमित्ते विषयेषु असक्ति-~-आसक्ति-निमित्तक विषयों प्रीति- प्रीतिमात्रं तदभावः असक्तिः। मात्रका नाम सक्ति है, उसका अभाव । अनभिष्वङ्गः अमिबङ्गाभावः। अभिष्वङ्गः अनभिष्वंग-अभिदंगका अभाव । मोहपूर्वक नाम सक्तिविशेष एव अनन्यात्मभावनालक्षणः। अनन्य आत्मभावनारूप जो विशेष आसक्ति है उसका नाम अभिष्वंग है । जैसे दुसरेके सुखी या यथा अन्यस्मिन् सुखिनि दुःखिनि वा अहम् दुःखी होनेपर यह मानना कि मैं ही सुखी- एव सुखी दुःखी च जीवति मृते वा अहम् एव दुःखी हूँ ! अथवा किसी अन्यके जीने-मरनेपर मैं जीवामि मरिष्यामि च इति । ही जीता हूँ या मर जाऊँगा, ऐसा मानना । क, इति आह, पुत्रदारगृहादिषुः पुत्रेषु दारेषु (ऐसा अभिष्वंग) कहाँ होता है ? सो कहते हैं- पुत्र, स्त्री और घर आदिमें अर्थात् पुत्रमें, स्त्रीमें, गृहेषु, आदिग्रहणाद् अन्येषु अपि अत्यन्तेष्टेषु घरमें तथा आदि शब्दका ग्रहण होनेसे अन्य जो दासवर्गादिषु । तत् च उभयं ज्ञानार्थत्वाद् कोई दासवर्ग आदि अत्यन्त प्रिय होते हैं उनमें भी। असक्ति और अनभिष्वंग ये दोनों ही ज्ञानके साधन हैं, इसलिये इनको भी ज्ञान कहते हैं । नित्यं च समचित्तत्वं तुल्यचित्तता क, इष्टा- तथा नित्य समचित्ता अर्थात् निरन्तर चित्तकी निष्टोपपत्तिषु, इष्टानाम् अनिष्टानां च उपपत्तयः समानता-किसमें ? इष्ट अथवा अनिष्टकी प्राप्तिमें, संप्राप्तयः तासु इष्टानिष्टोपपत्तिषु नित्यम् एव रहती है उसमें सदा ही चित्तका सम रहना । इस अर्थात् प्रिय और अप्रियकी जो बारंबार प्राप्ति होती तुल्यचित्तता, इष्टोपपत्तिषु न हृष्यति न साधनवाला प्रियकी प्राप्तिमें हर्षित नहीं होता और कुप्यति च अनिष्टोपपत्तिषु । तत् च एतद् अप्रियकी प्राप्तिमें क्रोधयुक्त नहीं होता। इस प्रकारकी नित्यं समचित्तत्वं ज्ञानम् ॥९॥ जो चित्तकी नित्य समता है वह भी 'ज्ञान' है ।।९।। ज्ञानम् उच्यते।