पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३२४

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३०८ श्रीमद्भगवद्गीता तथा- ज्ञानम् । किं च--- मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी । विविक्तदेशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि मयि च ईश्वरे अनन्ययोगेन अपृथक्समाधिना मुझ ईश्वरमें अनन्य योगसे--एकत्वरूप समाधि- न अन्यो भगवतो वासुदेवात् परः अस्ति अतः | योगसे अव्यभिचारिणी भक्ति । भगवान् वासुदेवसे पर स एव नो गतिः इति एवं निश्चिता अव्यभि- | अन्य कोई भी नहीं है, अतः वही हमारी परमगति है, इस प्रकारकी जो निश्चित अविचल बुद्धि है वही चारिणी बुद्धिः अनन्धयोगः तेन भजनं भक्तिः अनन्य योग है, उससे युक्त होकर भजन करना ही न व्यभिचरणशीला अव्यभिचारिणी । सा च 'कभी विचलित न होनेवाली अव्यभिचारिणी भक्ति' है, वह भी ज्ञान है। विविक्तदेशसेवित्वं विविक्तः स्वभावतः विविक्तदेशसेवित्व---एकान्त पवित्रदेश-सेवनका खभाव । जो देश स्वभावसे पवित्र हो या झाड़ने- संस्कारेण वाअशुच्यादिभिः सर्पव्याघ्रादिभिः | बुहारने आदि संस्कारोंसे शुद्र किया गया हो तथा सर्प-ज्याघ्र आदि जन्तुओंसे रहित हो, ऐसे च रहितः अरण्यनदीपुलिनदेवगृहादिभिः वन, नदी-तीर या देवालय आदि विविक्त ( एकान्त- विविक्तो देशः तं सेवितुं शीलम् अस्य इति पवित्र ) देशको सेवन करनेका जिसका स्वभाव है, वह विविक्तदेशसेवी कहलाता है, उसका भाव विविक्तदेशसेवी तद्भावो विविक्तदेशसेवित्त्वम् । वित्रिक्तदेशसेवित्व है । विविक्तेषु हि देशेषुचित्तंप्रसीदति यतः तत क्योंकि निर्जन-पवित्र देशमें ही चित्त प्रसन्न और आत्मादिभावना विविक्ते उपजायते अतो | स्वच्छ होला है, इसलिये विविक्तदेशमें आत्मादिकी भावना प्रकट होती है, अतः विविक्तदेश सेवन विविक्तदेशसेवित्वं ज्ञानम् उच्यते । करनेके स्वभावको 'ज्ञान' कहा जाता है। अरतिः अरमणं जनसंसदि जनानां प्राकृतानां तथा जनसमुदायमें अप्रीति । यहाँ विनयभाव- संस्कारशून्यानाम् अविनीतानां संसत् समवायो रहित संस्कार-शून्य प्राकृत पुरुषोंके समुदायका नाम ही जनसमुदाय है । विनययुक्त संस्कारसम्पन्न जनसंसत्, न संस्कारवत्तां विनीतानां संसत्, मनुष्योंका समुदाय जनसमुदाय नहीं है, क्योंकि वह तो ज्ञानमें सहायक है । सुतरां प्राकृत- तस्या ज्ञानोपकारकत्वात् ,अतः नाकृतजनसंसदि जनसमुदायमें प्रीतिका अभाव ज्ञानका साधन होनेके अरतिः ज्ञानार्थत्वाद् ज्ञानम् ॥१०॥ कारण 'ज्ञान' है॥१०॥ तथा--- अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम् । एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा ॥ ११ ॥