पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३२८

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३१२ श्रीमद्भगवद्गीता इदं तु ज्ञेयम् अतीन्द्रियत्वेन शब्दैकप्रमाण- परन्तु यह ज्ञेय (अन्न) इन्द्रियातीत होने के कारण, केवल एक शब्दप्रमाणसे ही प्रमाणित हो सकता है, गम्यत्वाद् न घटादिवद् उभयबुद्धधनुगत- इसलिये घट आदि पदार्थों की भांति यह है नहीं है। प्रत्ययविषयम् इति अतो न सत् तद् न असद् । इन दोनों प्रकार के ही ज्ञानों के अनुगत प्रतीतिका विषय नहीं है, सुतगं वह न तो सत् कहा जा इति उच्यते । सकता है और न अनत् ही कहा जा सकता है। यत् तु उक्तं विरुद्धम् उच्यते ज्ञेयं तद् न सत् तथा तुमने जो यह कहा कि, ज्ञेय है किन्तु बह तद् न असद् उच्यते इति । न विरुद्धम् । न सत् कहा जाता है और न असत् कहा जाता है, 'अन्यदेव तद्विदितादयो अविदितादाध यह कहना विरुद्ध है, तो विरुद्ध नहीं है। क्योंकि 'वह ब्रह्म जाने हुएसे और न जाने हुएसे (के० उ०१।३) इति श्रुतेः । भी अन्य है' इस श्रुतिप्रमाणसे यह बात सिद्ध है। श्रुतिः अपि विरुद्धार्था इति चेद् यथा पू०-यदि यह श्रुति भी विरुद्ध अर्थवाली हो तो? यज्ञाय शालाम् आरभ्य को हि तद् वेद अर्थात् जैसे यज्ञके लिये यज्ञशाला बनानेका विधान करके वहाँ कहा है कि 'उस यातको कौन जानता यद्यमुधिमँल्लोकेऽस्ति वा न वेति' (तै० सं० है कि परलोकमें यह सब है या नहीं इस श्रुतिके ६।१।१) एवम् इति चेत् । समान यह श्रुति भी विरुद्धार्थयुक हो तो ? न, विदिताविदिताभ्याम् अन्यत्वश्रुतेः उ०-यह वात नहीं है। क्योंकि यह जाने अवश्यविज्ञेयार्थप्रतिपादनपरत्वात् । हुएसे और न जाने हुएसे विलक्षणन्ध प्रतिपादन करनेवाली श्रुति निस्सन्देह अवश्य ही ज्ञेय पदार्थका मुष्मिन्' इत्यादि तु विधिशेषः अर्थवादः। होना प्रतिपादन करनेवाली है और यह सब परलोकमें है या नहीं'इत्यादि श्रुति-वाक्य, विधिके अन्तका अर्थवाद है ( अतः उसके साथ इसकी समानता नहीं हो सकती)। उपपत्तेः च सदसदादिशब्दैः ब्रह्म न युक्तिसे भी यह बात सिद्ध है कि ब्रह्म सत्-असत् उच्यते इति । सर्वो हि शब्दः अर्थप्रकाशनाय आदि शब्दोंद्वारा नहीं कहा जा सकता है क्योंकि अर्थका प्रकाश करने के लिये वक्ताद्वारा वोले जानेवाले प्रयुक्तः श्रयमाणः च श्रोतृभिः जातिक्रिया- | और श्रोताद्वारा सुने जानेवाले सभी शब्द आति, गुणसंबन्धद्वारेण संकेतग्रहणसुव्यपेक्षः अर्थ क्रिया, गुण और सम्बन्धद्वारा संकेत ग्रहण करवाकर ही अर्थकी प्रतीति कराते हैं, अन्य प्रकारसे नहीं। प्रत्याययति । न अन्यथा अदृष्टत्वात् । कारण, अन्य प्रकारसे प्रतीति होती नहीं देखी जाती। तद् यथा गौः अश्व इति वा जातितः, जैसे गौ या घोड़ा यह जातिसे, पकाना या पचति पठति इति वा क्रियातः, शुक्लः कृष्ण इति पढ़ना यह क्रियासे, सफेद या काला यह गुणसे और धनवान् या गौओंवाला यह सम्बन्धसे ( जाने जाते वा गुणतः, धनी गोमान् इति वा संवन्धतः । हैं । इसी तरह सबका ज्ञान होता है)। 'यद्य-