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Topinateersia शांकरभाष्य अध्याय १३

न तु ब्रह्म जातिमद् अतोन सदादिशब्द- परन्तु ब्रह्म जातिबाला नहीं है, इसलिये सत् आदि वाच्यं न अपि गुणवद् येन गुणशब्देन उच्येत शब्दोंद्वारा नहीं कहा जा सकता: निर्गुण होनेके कारण वह गुणवान् भी नह है, जिससे कि गुण- निर्गुणत्वाद् न अपि क्रियाशब्दवाच्यं , वाचक शब्दोंसे कहा जा सके और क्रियारहित होनेके निष्क्रियत्वात् ! निष्कलं निष्क्रिय शान्तम्' : कारण क्रियावाचक शब्दोंसे भी नहीं कहा जा सकता। 'ब्रह्म कलारहित, क्रियारहित और शान्त है' (थे० उ०६।१९ / इति श्रुतेः । इस श्रुतिसे भी यही बात सिद्ध होती है । न च संबन्धि एकत्वाद् अद्वयत्वाद् : तथा एक, अद्वितीय, इन्द्रियोंका अविषय और अविषयत्वाद् आत्मत्वात् च न केनचित् आत्मरूप होने के कारण (वह ब्रह्म) किसीका सम्बन्धी भी नहीं है। अतः यह कहना उचित ही है कि शब्देन उच्यते इति युक्तम् 'यतो वाचो निवर्तन्ते' ब्रह्म किसी भी शब्दसे नहीं कहा जा सकता। (ले० उ० २ ! ४ १९) इत्यादिश्रुतिभ्यः : 'जहाँसे वाणी निवृत्त हो जाती हैं' इत्यादि श्रुति- च॥१२॥ प्रमाणोंसे भी यही बात सिद्ध होती है ॥१२॥ सुच्छब्दप्रत्ययाविषयत्वाद् असञ्चाशङ्कायां वह 'ज्ञेय' सत् शब्दद्वारा होनेवाली प्रतीतिका ज्ञेयस्य सर्वप्राणिकरणोपाधिद्वारेण विषय नहीं है, इससे उसके न होने की आशंका तद- होनेपर उस आशंकाकी निवृत्तिके लिये, समस्त स्तित्वं प्रतिपादयन् तदाशङ्कानिवृत्त्यर्थम् । प्राणियोंकी इन्द्रियादि उपाधियोंद्वारा उस ज्ञेयके आह-- अस्तित्वका प्रतिपादन करते हुए कहते हैं- सर्वतःपाणिपाद तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ १३ ॥ सर्वतः पाणिपादं सर्वतः पाणयः पादाः च वह ज्ञेय सब ओर हाथ-पैरवाला है अर्थात् उसके अस्य इति सर्वतःपाणिपादं तद् ज्ञेयम् । हाथ-पैर सर्वत्र पोले हुए हैं। सर्वप्राणिकरणोपाधिभिः क्षेत्रज्ञास्तित्वं सब प्राणियोंको इन्द्रियरूप उपाधियोंद्वारा क्षेत्रज्ञ- का अस्तित्व प्रकट होता है। क्षेत्ररूप उपाधिके कारण विभाव्यते । क्षेत्रज्ञः च क्षेत्रोपाधित उच्यते ।। ही वह ज्ञेय क्षेत्रज्ञ कहा जाता है। क्षेत्ररूप उपाधि, क्षेत्रं च पाणिपादादिभिः अनेकधा भिन्नम् । हाथ, पैर आदि भेदसे अनेक प्रकार विभक्त है । क्षेत्रोपाधिभेदकृतं विशेषजातं मिथ्या एव वास्तवमें, क्षेत्रकी उपाधियोंके भेद से किये हुए समस्त भेद क्षेत्रज्ञमें मिथ्या ही हैं, अतः उनको क्षेत्रज्ञस्य इति तदपनयनेन ज्ञेयत्वम् उक्तम् हटाकर ज्ञेयका स्वरूप वह न सत् कहा जा सकता है और न असत् ही कहा जा सकता है। 'न सत्चन्नासदुच्यते' इति । ऐसे बतलाया गया है। ४०