पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३०

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श्रीमद्भगवद्गीता 2 उपाधिकृतं मिथ्यारूपम् अपि अस्तित्वा- तथा ज्ञेयका अस्तित्व समझानेके लिये उपाधि- धिगमाय ज्ञेयधर्मवत् परिकल्प्य उच्यते कृत मिथ्यारूपको भी उसके धर्मकी भाँति कल्पना करके उसको 'सब ओरसे हाथ-पैरवाला' है, इत्यादि सर्वतःपाणिपादम् इत्यादि। प्रकारसे बतलाया जाता है। तथा हि सम्प्रदायविदां वचनम्-'अध्यारो- सम्प्रदाय-परम्पराको जाननेवालोंका भी यही पापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते' इति । कहना है कि 'अध्यारोप और अपवादद्वारा प्रपञ्चरहित परमात्माकी व्याख्या की जाती है।' सर्वत्र सर्वदेहावयवत्वेन गम्यमानाः सर्वत्र अर्थात् सब शरीरोंके अंगरूपसे स्थित हाथ, | पैर आदि इन्द्रियाँ, ज्ञेय शक्तिको सत्तासे ही स्वकार्य- पाणिपादादयो ज्ञेयशक्तिसद्भावनिमित्तस्वकार्या में समर्थ हो रही हैं, अतः ये सब ज्ञेयकी सत्ताके इति ज्ञेयसद्भावे लिङ्गानि ज्ञेयस्य इति चिह्न होनेके कारण उपचारसे शेयके (धर्म) कहे जाते हैं। ऐसे ही और सबकी भी व्याख्या कर उपचारत उच्यन्ते । तथा व्याख्येयम् अन्यत् । लेनी चाहिये । सर्वत:पाणिपादं तद् ज्ञेयम् । सर्वतोऽक्षि- वह ज्ञेय सब ओर हाथ-पैरवाला है, तथा सब ओर शिरोमुखं सर्वत्र अक्षीणि शिरांसि मुखानि च नेत्र, शिर और मुखबाला है-जिसके आँख, शिर और यस्य तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतःश्रुतिमत् मुख सर्वत्र हों, वह सर्वतोऽक्षिशिरोमुख कहलाता है; श्रुतिः श्रवणेन्द्रियं तद् यस्य तत् श्रुतिमद् श्रवणेन्द्रिय हो वह श्रुतिमत् (कानवाला) कहा जाता तथा वह सब और कानवाला है-जिसके श्रुति अर्थात् लोके प्राणिनिकाये सर्वम् आवृत्य संव्याप्य तिष्ठति है । इस लोकमें समस्त प्राणिसमुदायमें वह सबको स्थितिं लभते ॥१३॥ व्याप्त करके स्थित है ॥१३॥ उपाधिभूतपाणिपादादीन्द्रियाध्यारोपणाद् उपाधिरूप हाथ, पैर आदि इन्द्रियोंके अध्यारोपसे ज्ञेयस्य तद्वत्ताशङ्का मा भूद् इति एवमर्थः किसीको ऐसी शंका न हो कि ज्ञेय उन उपाधियोंवाला श्लोकारम्भ:--- है, इस अभिप्रायसे यह श्लोक कहते हैं--- सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असतं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्त च ॥ १४ सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वाणि च . तानि वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियोंके गुणोंसे अबभासित इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि बुद्धीन्द्रियकर्मेन्द्रिया- (प्रतीत) होनेवाला है। यहाँ श्रोत्रादि ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक् ख्यानि अन्तःकरणे च बुद्धिमनसी ज्ञेयो- आदि कर्मेन्द्रियाँ तथा मन और बुद्धि ये दोनों अन्तः- करण-इन सबका सर्व इन्द्रियोंके नामसे ग्रहण है । पाधित्वस्य तुल्यत्वात् सर्वेन्द्रियग्रहणेन क्योंकि अन्तःकरण भी ज्ञेयकी उपाधिके रूपमें अन्य गृह्यन्ते । अपि च अन्तःकरणोपाधिद्वारेण इन्द्रियोंके समान ही है, बल्कि श्रोत्रादिका भी एव श्रोत्रादीनाम् अपि उपाधित्वम् इति । उपाधित्व अन्तःकरणरूप उपाधिके द्वारा ही है।