पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३१

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शांकरभाष्य अध्याय १३ अन्तःकरणबहिष्करणोपाधिभूतैः इसलिये यह अभिप्राय है कि उपाधिरूप अन्त:- सर्वेन्द्रियगुणैः अध्यवसायसंकल्पश्रवण- करण और वायुकरण, इन सभी इन्द्रियोंके गुण बचनादिभिः अवभासते इति सर्वेन्द्रियगुणाभासं उनके द्वारा वह ज्ञेय प्रतिभासित होता है अर्थात् जो निश्चय, संकल्प, श्रवण और भाषण आदि हैं, सन्द्रियब्यापारः व्यापृतम् इव तद् ज्ञेयम् उन इन्द्रियोंकी क्रियासे वह क्रियावान्-सा दिखलायी इत्यर्थः । देता है। 'ध्यायतीव लेलायतवि' (बृ. उ. ४ । ध्यान करता हुआ-सा, चेष्टा करता हुआ-सा' ३।७) इति श्रुतेः। इस श्रुतिसे भी यही सिद्ध होता है। कस्मात् पुनः कारणाद्न व्याप्तम् एवं तो फिर उस ज्ञेयको स्वयं क्रिया करनेवाला ही इति गृह्यते इति अत आह- क्यों नहीं मान लिया जाता है इसपर कहते हैं- सर्वेन्द्रियविवर्जितं सर्वकरणरहितम् इत्यर्थः । वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियोंसे रहित है अर्थात् सब अतो न करणव्यापारैः व्यापृतं तद् ज्ञेयम् । करणोंसे रहित है । इसलिये वह इन्द्रियोंके व्यापारसे ( वास्तवमें ) व्यापारवाला नहीं होता। यः तु अयं मन्त्र:--'अपाणिपादो जवनो यह जो मन्त्र है कि 'वह (ईश्वर) विना पैर और हाथके चलता और ग्रहण करता है, बिना अहीता पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः' (०३०३। चक्षुके देखता और विना कानोंके सुनता है' १९) इत्यादिः स सर्वेन्द्रियोपाधिगुणानुगुण्य- सो इस अभिप्रायको दिखानेके लिये है कि वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियरूप उपाधियोंके गुणोंकी अनुरूपता भजनशक्तिमत् तद् ज्ञेयम् इति एवं प्रदर्शनार्थो न प्राप्त करनेमें समर्थ है, उसे साक्षात् गमनादि क्रियाओं- तु साक्षाद् एव जवनादिक्रियावत्त्वप्नदर्शनार्थः। से युक्त बतलाने के लिये यह मन्त्र नहीं है । 'अन्धो मणिमविन्दत्' (तै० आ०१।११) 'अन्धेने मणि प्राप्त की' इत्यादि मन्त्रोंके अर्थकी इत्यादिमन्त्रार्थवत् तस्य मन्त्रस्य अर्थः । भाँति उस मन्त्रका अर्थ है। यस्मात् सर्वकरणवर्जितं ज्ञेयं तस्माद् वह ज्ञेय समस्त इन्द्रियोंसे रहित है, इसलिये असक्तं सर्वसंश्लेषवर्जितम् । संगरहित है अर्थात् सत्र प्रकारके सम्बन्धोंसें रहित है। यद्यपि एवं तथापि सर्वभृत् च एव । यद्यपि यह बात है तो भी वह ज्ञेय सबको धारण सदास्पदं हि सर्व सर्वत्र सद्बुद्धथनुगमात् । करनेवाला है । सत्-बुद्धि सर्वत्र व्याप्त है, अतः सत् ही सवका अधिष्ठान है। मृगतृष्णिकादि मिथ्या न हि मृगवृष्णिकादयः अपि निरास्पदा पदार्थ भी बिना अधिष्ठानके नहीं होते, इसलिये वह भवन्ति । अतः सर्वभृत् सर्व विभर्ति इति । ज्ञेय सबका धारण करनेवाला है।