पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३२

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श्रीमद्भगवद्गीता स्याद् इदं च अन्यद् ज्ञेयस्य सत्याधिगम- उस ज्ञेयकी सत्ताको बतलानेवाला यह दूसरा द्वारं निर्गुणं सत्त्वरजस्तमामि गुणाः तैः वर्जित माधन भी है। वह ज्ञेय निर्गुण यानी सत्त्व,रज और तम तद् ज्ञेयं तथापि गुणभोक्त च गुणानां इन तीनों गुणोंसे अतीत है तो भी गुणोंका भोक्ता है. सत्त्वरजस्तमसा शब्दादिद्वारेण मुखदुःस्व. अर्थात् वह ज्ञेय सुख दुःख और मोहके रूपमें परिणत मोहाकारपरिणतानां भोक्तृ च उपलब्धृ तद् हुए तीनों गुणोंका शब्दादिद्वारा भोग करनेवाला- ज्ञेयम् इत्यर्थः ॥१४॥ । उन्हें उपलब्ध करनेवाला है ॥१४॥ तथा---- किं च- बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च तत् ॥ १५ ॥ बहिः त्वक्पर्यन्तं देहम् आत्मत्वेन अविद्या- अविद्याद्वारा आत्मभावसे कल्पित शरीरको कल्पितम् अपेक्ष्य तम् एव अवधिं कृत्वा बहिः | स्वचापर्यन्त अवधि मानकर उसीको अपेक्षासे ज्ञेयको उच्यते । तथा प्रत्यगात्मानम् अपेक्ष्य देहम् एव करके तथा शरीरको ही अबधि मानकर ज्ञेयको उसके बाहर बतलाते हैं ! वैसे ही अन्तरात्माको लक्ष्य अवधिं कृत्वा अन्तः उच्यते । उसके भीतर (व्यास ) बतलाया जाता है । बहिः अन्तः च इति उक्ते मध्ये अभावे बाहर और भीतर व्याप्त है-ऐसा कहनेसे मध्य में प्राप्ते इदम् उच्यते- उसका अभाव प्राप्त हुआ, इसलिये कहते हैं- अचरं चरम् एव च यत् चराचरं देहाभासम् | चर और अचररूप भी वही है अर्थात् | रम्जुमें सर्पकी भाँति प्रतीत होनेवाले जो चर- अपि तद् एव ज्ञेयं यथा रज्जुसाभासः । अचररूप शरीरके आभास हैं, वह भी उस ज्ञेयका ही खरूप है। यदि अचरं चरम् एव च व्यवहारविषय यदि चर और अचररूप समस्त व्यवहारका विषय सर्वं ज्ञेयं किमर्थम् इदम् इति सर्वेः न विज्ञेयम्, वह ज्ञेय ( परमात्मा ) ही है, तो फिर वह यह है' इस प्रकार सबसे क्यों नहीं जाना जा सकता ? इति उच्यते-- इसपर कहते हैं- सत्यम् , सर्वाभासं तत् तथापि व्योमवत् ठीक है, सारा दृश्य उसीका स्वरूप है, तो भी सूक्ष्मम् अतः सूक्ष्मत्वात् स्वेन रूपेण तद् ज्ञेयम् । वह ज्ञेय आकाशकी भाँति अति सूक्ष्म है । अतः यद्यपि वह आत्मरूपसे ज्ञेय है, तो भी सूक्ष्म होनेके अपि अविज्ञेयम् अविदुषाम् । कारण अज्ञानियोंके लिये अविज्ञेय ही है विदुषां तु 'आत्मैवेदं सर्वम् (छा ०७।२५।२) ज्ञानी पुरुषोंके लिये तो, 'यह सब कुछ आत्मा 'ब्रह्मैवेदं सर्वम्' (वृ० उ० २।५।१ ) इत्यादि- ही है' 'यह सब कुछ ब्रह्म ही है' इत्यादि प्रमाणोंसे प्रमाणतो नित्यं विज्ञातम्--- वह सदा ही प्रत्यक्ष रहता है । ।