पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३३

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शांकरभाष्य अध्याय १३ अविज्ञाततया दृरस्थं वर्षसहलकोव्यापि वह य अज्ञात होने के कारण और हजारों करोड़ घातक भी प्राप्त न हो सकनेके कारण अविदुषाम् अप्राप्यत्वाद् अन्तिके च तद् अज्ञानियों के लिये बहुत दूर है, किन्तु ज्ञानियों का तो आत्मत्वाद् विदुपाम् ।। १५ । वह आत्मा ही है. अतः उनके निकट ही है ||१५|| कि च--- .

अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमित्र च स्थितम् । भूतभर्तृ च तज्ञेयं असिष्णु प्रभविष्णु च ॥ १६ ॥ अविभक्तं च प्रतिदेहं व्योमवत् तद् एकं वह ज्ञेय प्रत्येक शरीरने आकाशके समान भूतेषु सर्वप्राणिषु विभक्तम् इव च स्थितं दहेषु अविभक्त और एक है । तो भी समस्त प्राणियोंमें विभक्त हुआ-सा स्थित है, क्योंकि उसकी प्रतीति एव विभाव्यमानत्वात् । शरीरोंमें ही हो रही है। भूतभर्तृ च भूतानि विभर्ति इति त आर्य तथा वह ज्ञेय स्थितिकालमें भूतभर्तृ-भूतोंका भूतभर्तृ च स्थितिकाले । प्रलयकाले प्रसिष्णु धारण-पोषण करनेवाला, प्रलयकालमें असिष्णु- सबका संहार करनेवाला और उत्पत्तिके समय प्रसनशीलम् । उत्पत्तिकाले प्रभविष्णु च प्रभविष्णु-सबको उत्पन्न करनेवाला है, जैसे कि प्रभवनशीलम् । यथा रज्ज्वादिः सादेः मिध्याकल्पित सादिके ( उत्पत्ति, स्थिति और मिथ्याकल्पितस्य ॥ १६ ॥ नाशके कारण) रज्जु आदि होते हैं ॥ १६ ॥ । किं च सर्वत्र विद्यमानं सद् न उपलभ्यते यदि सर्वत्र विद्यमान होते हुए भी ज्ञेय प्रत्यक्ष नहीं होता, तो क्या वह अन्धकार है ? नहीं। चेद् ज्ञेयं तमः तर्हि । न, कि तर्हि- तो क्या है- ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥ १७ ॥ ज्योतिषाम् आदित्यानाम् अपि तद् ज्ञेयं । वह ज्ञेय ( परमात्मा) समस्त सूर्यादि ज्यौतियों- ज्योतिः । आत्मचैतन्यज्योतिषा इद्धानि हि का भी परम ज्योति है, क्योंकि आत्मचैतन्यके प्रकाशसे देदीप्यमान होकर ही ये सूर्य आदि आदित्यादीनि ज्योतींषि दीप्यन्ते । समस्त ज्योतियाँ प्रकाशित हो रही हैं। 'येन सूर्यस्तपति तेजसेद्धः' 'तस्य भासा : 'जिस तेजसे प्रदीप्त होकर सूर्य तपता है। सर्वमिदं विभाति' (श्वे० उ० ६ । १४ ) इत्यादि इत्यादि श्रुतिप्रमाणोंसे और यहीं कहे हुए 'उसोके प्रकाशसे यह सब कुछ प्रकाशित है। श्रुतिभ्यः । स्मृतेः च इह एव 'यदादित्यगतं : 'यदादित्यगतं तेजः' इत्यादि स्मृतिवाक्योंसे भी तेजः' इत्यादेः। । उपर्युक्त बात ही सिद्ध होती है । i