पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३५

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शांकरमाप्य अध्याय १३ स एतद् यथोक्तं सम्यग्दर्शनं विज्ञाय वह उपर्युक यथार्थ ज्ञानको समझकर मेरे भावको मद्भावाय मम भावो मद्भावः परमात्मभावः अर्थात् नेग जो परमात्मभाव है, उसको प्राप्त करने में तस्मै मद्भावाय उपपद्यते मोक्षं गच्छति ॥१८॥ समर्थ होता है, अर्थात् मोक्ष-लाभ कर लेता है ॥१८॥ तत्र सहमे ईश्वरस्य द्वे प्रकृती उपन्यस्ते सातवे अध्याय में ईश्वरको क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप परापरे क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणे । एतद्योनीनि अपरा और परा दो प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं, भूतानि इति च उक्तम् । क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वय- प्राणियोंकी योनि (कारण हैं । अब यह बात तथा यह भी कहा गया है कि ये दोनों प्रकृतियाँ समस्त योनित्वं कथं भूतानाम् इति अयम् अर्थः अधुना बतलायी जाती है कि वे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञरूप दोनों उच्यते- प्रकृतियाँ सब भूतोंकी योनि किस प्रकार हैं--- प्रकृति पुरुषं चैव विद्धचनादी उभावपि । विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान् ॥ १६ ॥ प्रकृति पुरुषं च एव ईश्वरस्य प्रकृती तौ प्रकृति और पुरुष जो कि ईश्वरकी प्रकृतियाँ प्रकृतिपुरुषो उभौ अपि अनादी विद्धि । न हैं, उन दोनों को ही तू अनादि जान । जिनका विद्यते आदिः ययोः तो अनादी। आदि न हो उनका नाम अनादि है ! नित्येश्वरत्वाद् ईश्वरस्य तत्प्रकृत्योः। ईश्वरका ईश्वरत्व नित्य होनेके कारण उसकी दोनों अपि युक्तं नित्यत्वेन भवितुम् । प्रकृतिद्वयवत्त्वम् प्रकृतियोंका भी नित्य होना उचित ही है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंसे युक्त होना ही ईश्वरकी एव हि ईश्वरस्य ईश्वरत्वम् । ईश्वरता है। याभ्यां प्रकृतिभ्यां ईश्वरो जगदुत्पत्ति- जिन दोनों प्रकृतियोंद्वारा ईश्वर जगतकी स्थितिप्रलयहेतुः ते द्वे अनादी सत्यो संसारस्य उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयका कारण है, वे कारणम् । दोनों अनादि-सिद्ध ही संसारकी कारण हैं । न आदी अनादी इति तत्पुरुषसमास कोई-कोई टीकाकार 'जो आदि (नित्य कारण) केविद् वर्णयन्ति । तेन हि किल ईश्वरस्य नहीं हैं ये अनादि कहे जाते हैं इस प्रकार यहाँतत्पुरुष- समासका वर्णन करते हैं (और कहते हैं कि) इससे कारणत्वं सिध्यति । यदि पुनः प्रकृतिपुरुषो केवल ईश्वर ही जगत्का कारण है, यह बात सिद्ध होती है। यदि प्रकृति और पुरुषको नित्य माना जाय एव नित्यौ स्यातां तत्कृतम् एव जगद् तो संसार उन्हींका रचा हुआ माना जायगा, ईश्वर ईश्वरस्य जगतः कर्तृत्वम् । जगत्का कर्ता सिद्ध न होगा। तद् असत्, प्राक प्रकृतिपुरुषयोः उत्पत्तेः किन्तु ऐसा मानना ठीक नहीं, क्योंकि (यदि प्रकृति ईशितव्याभावाद् ईश्वरस्य अनीश्वरत्वप्रसङ्गात् । । और पुरुषको नित्य न माने तो) प्रकृति और पुरुषकी उत्पत्तिसे पूर्व शासन करनेयोग्य वस्तुका अभाव होनेसे ईश्वरमें अनीश्वरताका प्रसंग आ जाता है।