पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

???...?... "..... शांकरभाष्य अध्याय १३ ३२१ तेषां कार्यकरणानां कर्हत्वम् उत्पादकत्वं उन कार्य और करणों का जो कर्तापन अर्थात् यद् तत् कार्यकरणकत्वं तस्मिन् कार्यकरण- उनको उत्पन्न करनेका भाव है उसका नाम कार्य- कर्तृत्वे हेतुः कारणम् आरम्भकत्वेन प्रकृतिः . करण-कर्तृत्व है. उन कार्य-करणोंके कर्तृत्वमें आरम्भक होनेसे प्रकृति कारण कही जाती है। उच्यते । एवं कार्यकरणकर्तृत्वेन संसारस . इस प्रकार कार्य-करणोंको उत्पन्न करनेवाली होनेसे कारणं प्रकृतिः प्रकृति संसारकी कारण है। कार्यकारणाकर्तृत्वे इति अस्मिन् अपि पाठे 'कार्यकारशकर्तुत्वे ऐसा पाठ माननेले भी यही कार्य यद् यस्य विपरिणामः तत् तस्य कार्य अर्थ होगा कि जो जिसका परिणाम है, वह उसका कार्य अर्थात् विकार है, और कारण विकारी-विकृत विकारो विकारि कारणं तयोः विकार- होनेवाला है। उन बिकारी और विकाररूप कारण विकारिणो कार्यकारणयोः कर्तृत्वे इति । और कार्योंके उत्पन्न करनेमें ( प्रकृति हेतु है)। अथवा षोडश विकाराः कार्यम्, सप्त प्रकृति- अथवा सोलह विकार तो कार्य और सात विकृतयः कारणम्, तानि एव कार्यकारणानि प्रकृति-विकृति कारण हैं, इस प्रकार ये (तेईस तत्त्व) उच्यन्ते । तेषां करीत्वे हेतुः प्रकृतिः उच्यते फापनमें प्रारम्भकबसे ही प्रकृति हेतु कही

ही कार्यकारण,के नामसे कहे जाते हैं। इनके

आरम्भकत्वेन एव । जाती है। पुरुषः च संसारस्य कारणं यथा स्यात् । पुरुष भी जिस प्रकार संसारका कारण होता है, । सो कहा जाता है- पुरुषो जीवः क्षेत्रज्ञो भोक्ता इति पर्यायः पुरुष अर्थात् जीव, क्षेत्रज्ञ, भोक्ता इत्यादि सुखदुःखाना भोग्यानां भोक्तृत्वे उपलब्धृत्ते जिसके पर्याय शब्द हैं, वह सुख-दुःख आदि भोगोंके भोक्तापनमें अर्थात् उनका उपभोग करने में हेतुः उच्यते । हेतु कहा जाता है। कथं पुनः अनेन कार्यकरणकर्तृत्वेन सुख- पू०-परन्तु इस कार्य-करणके कर्तापनसे और दुःखभोक्तृत्वेन च प्रकृतिपुरुषयोः संसार- : सुख-दुःखके भोक्तापनसे प्रकृति और पुरुष दोनोंको कारणत्वम् उच्यते इति । संसारका कारण कैसे बतलाया जाता है ? अत्र उच्यते । कार्यकरणसुखदुःखरूपेण ०-कार्य-करण और सुख-दुःखादिरूप हेतु हेतुफलात्मना प्रकृतेः परिणामाभावे पुरुषस्य और फलके आकारमें प्रकृतिका परिणाम न होनेपर चेतनस्य असति तदुपलब्धृत्वे कुतः संसारः : तथा चेतन पुरुषमें उन सबका भोक्तापन न होनसे संसार कैसे सिद्ध होगा। जब कार्य-करण- स्यात् । यदा पुनः कार्यकरणरूपेण हेतु रूप हेतु और फलके आकारमें परिणत हुई भोग्यरूपा फलात्मना परिणतया प्रकृत्या भोग्यया प्रकृतिके साथ उससे विपरीत धर्मवाले पुरुषका, पुरुषस्य तद्विपरीतस्य भोक्तृत्वेन अविद्यारूपः भोक्ता-भावसे अविद्यारूप संयोग होगा, तभी संयोगः स्यात् तदा संसारः स्याद् इति । संसार प्रतीत होगा। तद् उच्यते-