पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४२

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३२६ श्रीमद्भगवद्गीता अपिशब्दात किमु वक्तव्यं स्ववृत्तस्थो न 'अपि' शब्दसे यह अभिप्राय है कि अपने वर्णाश्रम धर्मके अनुकूल वतनेवाला पुनः उत्पन्न नहीं. जायते इति अभिप्रायः होता, इसमें तो कहना ही क्या है ? ननु यद्यपि ज्ञानोत्पत्त्यानन्तरं पुन- पू०- यद्यपि ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् पुन- जन्माभाव उक्तः तथापि प्राग् ज्ञानोत्पत्तः अन्मका अभाव बतलाया गया है, तथापि ज्ञान उत्पन्न होने से पहले किये हुए, ज्ञानोत्पत्तिके पश्चात् कृतानां कर्मणाम् उत्तरकालभाविनां च यानि किये जानेवाले और अनेक भूतपूर्व जन्मोंमें किये च अतिक्रान्तानेकजन्मकृतानि तेषां फलम् हुए जो कर्म हैं, फल प्रदान किये बिना उनका अदत्त्वा नाशो न युक्त इति स्युःत्रीणि जन्मानि। नाश मानना युक्कियुक्त नहीं है, अतः (ज्ञान प्राप्त होने के बाद मी) तीन जन्म और होने चाहिये। कृतविप्रणाशो हि न युक्त इति यथा फले अभिप्राय यह है कि सभी कर्म मुमान हैं, उनमें प्रवृत्तानाम् आरब्धजन्मनां कर्मणाम् । न च कोई भेद प्रतीत नहीं होता, अतः फल देनेके लिये प्रवृत्त हुए जन्मारम्म करने वाले प्रारब्ध कर्मों के कर्मणां विशेषः अवगम्यते । तस्मात् समान ही, किये हुए अन्य कर्मोका भी (बिना फल त्रिप्रकाराणि अपि कर्माणि त्रीणि जन्मानि दिये ) नाश ( मानना ) उचित नहीं, सुतरां तीनों आरभेरन् संहतानि वा सर्वाणि एक जन्म प्रकारके कर्म तीन जन्मोंका आरम्भ करेंगे अथवा सब मिलकर एक जन्मका ही आरम्भ करेंगे आरभेरन् । (ऐसा मानना चाहिये। अन्यथा कृतविनाशे सति सर्वत्र अनाश्वास- नहीं तो किये हुए कर्माका (बिना फल दिये) प्रसङ्गः शास्त्रानर्थक्यं च स्याद् इति अत इदम् नाश माननेसे, सर्वत्र अविश्वासका प्रसंग आ जायगा और शास्त्रकी व्यर्थता सिद्ध हो जायगी। अतः यह अयुक्तम् उक्तं न स भूयः अभिजायते इति । कहना कि 'वह फिर जन्म नहीं लेता ठीक नहीं है । न, 'क्षीयन्ते चास्य कमाणि' (मु० उ०२।२।८) उ०- यह बात नहीं है। क्योंकि इसके समस्त 'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' (मुउ०३।२।९) 'तस्य कर्म क्षय हो जाते हैं' 'ब्रह्मको जाननेवाला ब्रह्म तावदेव चिरम् (छा उ०६।११।२) इषीकातूलवत् ही हो जाता है' 'उसके ( मोलमें) तभीतककी देर है' 'अग्निमें तृणके अग्रभागकी भाँति उसके सर्वाणि कर्माणि प्रदूयन्ते' (छा ० उ० ५।२४१३) समस्त कर्म भस्म हो जाते हैं। इत्यादि सैकड़ों इत्यादिश्रुतिशतेभ्य उक्तो विदुषः सर्वकर्म- श्रुतियोंद्वारा विद्वान्के सब कोंका दाह होना कहा गया है। इह अपि च उक्तो 'यथैधांसि' इत्यादिना यहाँ गीताशास्त्र में भी 'यथैधांसि' इत्यादि श्लोकमें सर्वकर्मदाहः वक्ष्यति च । समस्त कर्मोका दाह कहा गया है और आगे भी कहेंगे। उपपत्तेः च । अविद्याकामक्लेशबीजनिमि- युक्तिसे भी यही बात सिद्ध होती है,क्योंकि अविद्या, कामना आदि क्लेशरूप बीजोंसे युक्त हुए ही, कारणरूप त्तानि हि कर्माणि जन्मान्तराङ्कुरम् आरभन्ते । कर्म अन्य जन्मरूप अंकुरका आरम्भ किया करते हैं। दाहः।