पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४३

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pila 12:27-FROTHER2.00%2BER PARES HIKARATRAINormeramme See शांकरभाष्य अध्याय १३ इह अपि च साईकाराभिसंधीनि कर्माणि यहाँ गीताशास्त्र में भी भगवान्ने जगह-जगह फलारम्भकाणि न इतराणि इति तत्र तत्र कहा है कि अहंकार और फलाकांक्षायुक्त कर्म ही भगवता उक्तम् । फलका आरम्भ करनेवाले होते हैं, अन्य नहीं ! 'बीजान्यग्न्युपदधानि न रोहन्ति यथा पुनः। तथा 'जैसे अग्निमें दग्ध हुए वीज फिर नहीं उगते, वैसे ही ज्ञानसे दग्ध हुए केशोद्वारा ज्ञानदग्धैस्तथा क्लेशैर्नामा संपद्यते पुनः' इति च । आत्मा पुनः शरीर ग्रहण नहीं करता' ऐसा भी ( शास्त्रोंका वचन है)। अस्तु तावत् ज्ञानोत्पत्त्युत्तरकालतानां पू-ज्ञान होनेके पश्चात् किये हुए कर्मोंका कर्मणां ज्ञानेन दाहो ज्ञानसहभावित्वात् । न ज्ञानद्वारा दाह हो सकता है, क्योंकि वे ज्ञानके साथ होते हैं। परन्तु इस जन्ममें ज्ञान उत्पन्न होनेसे तु इह जन्मनि ज्ञानोत्पत्तेः प्राकृतानाम् पहले किये हुए और भूतपूर्व अनेक जन्मोंमें किये अनीतानेकजन्मान्तरकृत्तानां च दाहो युक्तः। हुए कर्मोंका, ज्ञानद्वारा नाश मानना उचित नहीं। न 'सर्वकर्माणि' इति विशेषणात् । उ०-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि 'सारे कर्म (दग्ध हो जाते हैं) ऐसा विशेषण दिया गया है। ज्ञानोत्तरकालभाविनाम् एव सर्वकर्मणाम् पू०-यदि ऐसा मानें कि, ज्ञानके पश्चात् होने- इति चेत् । वाले सब कमोंका ही (ज्ञानद्वारा दाह होता है तो ?) न, संकोचे कारणानुपपत्तेः। यत् तु उक्त 30-यह बात नहीं है। क्योंकि (इस प्रकारके) संकोचका (कोई) कारण नहीं सिद्ध होता । और यथा वर्तमानजन्मारम्भकाणि कर्माणि न तुमने जो कहा कि जैसे ज्ञान हो जानेपर भी, वर्तमान क्षीयन्ते फलदानाय प्रवृत्तानि एव सति अपि जन्मका आरम्भ करनेवाले, फल देनेके लिये प्रवृत्त हुए प्रारब्धकर्म, नष्ट नहीं होते, वैसे ही जिनका ज्ञाने, तथा अनारब्धालानाम् अपि कर्मणां फल आरम्भ नहीं हुआ है, उन क्रमोंका भी नाश (मानना) युक्तियुक्त नहीं है, सो ऐसा कहना भी क्ष्यो न युक्त इति । तद् असत् । ठीक नहीं। कथम्, तेषां मुक्तेषुवत् प्रवृत्तफलत्वात् । क्योंकि वे प्रारब्ध कर्म छोड़े हुए बाणकी भाँति फल देनेके लिये प्रवृत्त हो चुके हैं, इसलिये ( उनका यथा पूर्व लक्ष्यवेधाय मुक्त इषुः धनुषो फल अवश्य होता है, पर अन्यका नहीं ) । जैसे पहले लक्ष्यका वेध करनेके लिये धनुषसे छोड़ा हुआ लक्ष्यवेधोत्तरकालम् अपि आरब्धवेगक्षयाद वाण, लक्ष्य-वेध हो जानेके पश्चात् भी आरम्भ हुए पतनेन एव निवर्तते एवं शरीरारम्भकं कर्म वेगका नाश होनेपर गिरकर ही शान्त होता है, वैसे ही शरीरका आरम्भ करनेवाले प्रारब्ध कर्म शरीरस्थितिप्रयोजने निवृत्त अपि आसंस्कार- भी, शरीर-स्थितिरूप प्रयोजनके निवृत्त हो जानेपर भी, जबतक संस्कारोंका वेग क्षय नहीं हो जाता, वेगक्षयात् पूर्ववद् वर्तते एव । तबतक पहलेकी भाँति वर्तते ही रहते हैं। i