पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४६

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३३० श्रीमद्भगवद्गीता यावद् यत् किंचित् संजायते समुत्पद्यते सत्त्वं हे भरतश्रेष्ट ! जो कुछ भी वस्तु उत्पन्न होती है, क्या यहाँ समानभावसे वस्तुमात्रका ग्रहण है ? इसपर वस्तु किम् अविशेषेण इति आह स्थावरजङ्गमं | कहते हैं कि जो कुछ स्थावर-जंगम यानी स्थावरं जङ्गमं च क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगात् तद् जायते चर और अचर वस्तु उत्पन्न होती है, वह सब क्षेत्र और क्षेत्रज्ञक संयोगसे ही उत्पन्न होती है, इस इति एवं विद्धि जानीहि हे भरतर्षभ । प्रकार तू जान। कः पुनः अयं क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः संयोगः अभि- पू०-इस क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके संबोगसे क्या प्रेतः। न तावद्र रज्ज्वाइव घटस्य अवयवसंश्लेष- | अभिप्राय है ? क्योंकि क्षेत्रज्ञ, आकाशके समान अवयवरहित है इसलिये उसका क्षेत्र के साथ रस्सी- द्वारका संबन्धविशेषः संयोगः क्षेत्रेण क्षेत्रज्ञस्य से घड़े के सम्बन्धकी भाँति, अवयत्रों के संसर्गसे होने- संभवति आकाशवद् निरवयवत्वात् । न अपि । वाला सम्बन्धरूप संयोग, नहीं हो सकता । समवायलक्षणः तन्तुपटयोः इव क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः वैसे ही आपसमें एक-दूसरेका कार्य-कारण-भाव न होनेसे सूत और कपड़े की भाँति, क्षेत्र और क्षेत्रका इतरेतरकार्यकारणभावानभ्युपगमाद् इति । समवाय-सम्बन्धरूप संयोग भी, नहीं बन सकता। उच्यते, क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः विषयविषयिणोः उ०-क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, जोकि विषय औरविषयी तथा भिन्नस्वभावयोः इतरेतरतद्धर्माध्यासलक्षणः | भिन्न स्वभाववाले हैं उनका, अन्यमें अन्यके धर्मोंका संयोगः क्षेत्रक्षेत्रज्ञस्वरूपविवेकाभावनिबन्धनः । अध्यासरूप संयोग है, यह संयोग रज्जु और सीप आदिमें उनके स्वरूपसम्बन्धी ज्ञानके अभावसे अध्यारोपित रज्जुशुक्तिकादीनां तद्विवेकज्ञानाभावाद् सर्प और चाँदी आदिके संयोगकी भाँति, क्षेत्र और अध्यारोपितसर्परजतादिसंयोगवत् । क्षेत्रज्ञके वास्तविक स्वरूपको न जाननेके कारण है। सः अयम् अध्यासखरूपः क्षेत्रक्षेत्रज्ञसंयोगो ऐसा यह अध्यासस्वरूप क्षेत्र और क्षेत्रका मिथ्याज्ञानलक्षणः। संयोग मिथ्या ज्ञान है। यथाशास्त्रं क्षेत्रक्षेत्रज्ञलक्षणभेदपरिज्ञानपूर्वक जो पुरुष, शास्त्रोक्त रीतिसे क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके लक्षण और भेदको जानकर, पहले जिसका प्राग्दर्शितरूपात् क्षेत्राद् मुञ्जाद् इव इपीकां स्वरूप दिखलाया गया है, उस क्षेत्रसे मूंजमेंसे यथोक्तलक्षणं क्षेत्रसँ प्रविभज्य 'न सत्तन्ना- सींक अलग करनेकी भाँति पूर्वोक्त लक्षणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञको अलग करके देखता है अर्थात् उस ज्ञेय- सदुच्यते' इत्यनेन निरस्तसर्वोपाधिविशेष ज्ञेयं स्वरूप क्षेत्रको 'न सत्तन्नासदुच्यते' इस वाक्या- नुसार समस्त उपाधिरूप विशेषताओंसे अतीत ब्रह्मस्वरूपेण यः पश्यति । ब्रह्मस्वरूपसे देख लेता है। क्षेत्रं च मायानिर्मितहस्तिस्वमदृष्टवस्तु- तथा जो क्षेत्रको मायासे रचे हुए हाथी,स्वप्नमें देखी हुई वस्तु या गन्धर्वनगर आदिकी भाँति 'यह वास्तव में गन्धर्वनगरादिवद् असद् एव सद् इव अव- नहीं है तो भी सत्की भाँति प्रतीत होता है', ऐसे