पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४८

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श्रीमद्भगवद्गीता सह कायः। अतः अन्त्यभावविकाराभावानुवादेन पूर्व- इसलिये अन्तिम भाव-विकारके अभावका भाविनः सर्वे भावविकाराः प्रतिषिद्धा भवन्ति ( ‘अविनश्यन्तम्' इस पदके द्वारा ) अनुवाद करनेसे पहले होनेवाले, सभी भाव-विकारोंका कार्यके सहित, प्रतिषेध हो जाता है। तस्मात् सर्वभूतैः वैलक्षण्यम् अत्यन्तम् एव सुतरां ( उपर्युक्त वर्णनसे ) परमेश्वरकी सब भूतोंसे अत्यन्त ही विलक्षणता तथा निर्विशेषता परमेश्वरस्य सिद्धं निर्विशेषत्वम् एकत्वं च । और एकता भी सिद्ध होती है। अतः जो इस प्रकार य एवं यथोक्तं परमेश्वरं पश्यति स पश्यति । उपर्युक्त भावसे परमेश्वरको देखता है वही देखता है। ननु सर्वः अपि लोकः पश्यति कि पू 16--सभी लोग देखते हैं फिर वही देखता है! विशेषणेन इति । इस विशेषणसे क्या प्रयोजन है ? सत्यं पश्यति किं तु विपरीतं पश्यति अतो उ-ठीक है, ( अन्य सब भी ) देखते हैं परन्तु विपरीत देखते हैं, इसलिये यह विशेषण दिया विशिनष्टि स एव पश्यति इति । गया है कि वही देखता है। यथा तिमिरदृष्टिः अनेकं चन्द्रं पश्यति तम् जैसे कोई तिमिर रोगसे दृषित हुई दृष्टिवाला अनेक चन्द्रमाओंको देखता है, उसकी अपेक्षा एक अपेक्ष्य एकचन्द्रदर्शी विशिष्यते स एव पश्यति चन्द्र देखनेवालेकी यह विशेषता बतलायी जाती इति, तथा एव इह अपि एकम् अविभक्तं है कि वही ठीक देखता है। वैसे ही यहाँ भी जो यथोक्तम् आत्मानं यः पश्यति स विभक्ता- आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे विभागरहित एक नेकात्मविपरीतदर्शिभ्यो विशिष्यते, स एव देखता है, उसकी अलग-अलग अनेक आत्मा देखने- वाले विपरीतदर्शियोंकी अपेक्षा यह विशेषता पश्यति इति । बतलायी जाती है कि वही ठीक-ठीक देखता है। इतरे पश्यन्तः अपि न पश्यन्ति विपरीत- अभिप्राय यह है कि दूसरे सब अनेक चन्द्र देखनेवालेकी भाँति विपरीत भावसे देखनेवाले होनेके दर्शित्वाद् अनेकचन्द्रदर्शिवद् इत्यर्थः ॥२७॥ कारण, देखते हुए भी वास्तवमें नहीं देखते ॥२७॥ यथोक्तस्य सम्यग्दर्शनस्य फलवचनेन उपर्युक्त यथार्थ ज्ञानका फल बतलाकर उसकी स्तुति करनी चाहिये । इसलिये यह श्लोक आरम्भ स्तुतिः कर्तव्या इति श्लोक आरभ्यते- किया जाता है- समं पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीश्वरम् । न हिनस्त्यात्मनात्मानं ततो याति परां गतिम् ॥२८॥