पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३४९

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ANTraz4 EMARCLOAD शांकरभाष्य अध्याय १३ ३३३

समं पश्यन् उपलभमानो हि यसात् सर्वत्र क्योंकि सर्वत्र- -तुब भूतोंमें समभावसे स्थित हुए सर्वभूतेषु समवस्थितं तुल्यतया अवस्थितम् ईश्वरम् ईश्वरको अर्थात् ऊपरके इलोकनें जिसके लक्षण बतलाये अतीतानन्तरश्लोकोक्तलक्षणम् इत्यर्थः । समं गये हैं, उस (परमेश्वर) को सर्वत्र समान भावसे देखने- पश्यन् किं न हिनस्ति हिंसां न करोति आत्मना वाला पुरुष खयं अपने आप अपनी हिंसा नहीं करता, इसलिये अर्थात् अपनी हिंसा न करनेके : स्वेन एव खम् आत्मानं ततः तद् अहिंसनाद् याति कारण वह मोक्षरूप परम उत्तम गतिको प्राप्त परां प्रकृष्टां गतिं मोक्षाख्याम् । होता है। ननु न एव कश्चित् प्राणी स्वयं स्वम् आत्मानं पू०--कोई भी प्राणी स्वयं अपनी हिंसा नहीं हिनस्ति कथम् उच्यते अप्राप्तं न हिनस्ति इति । करता फिर यह अप्राप्तका निषेध क्यों किया जाता है कि वह अपनी हिंसा नहीं करता जैसे कोई यथा न गृथिव्याम् अग्निः चेतव्यो न अन्तरिक्षे कहे कि 'पृथिवीपर और अन्तरिक्षमें अग्नि नहीं। इत्यादि। जलानी चाहिये * न एष दोषः अज्ञानाम् आत्मतिरस्करणोप- उ०-यह दोष नहीं है। क्योंकि अज्ञानियोंसे स्वयं पत्तेः । सर्वो हि अज्ञः अत्यन्तप्रसिद्धं साक्षाद् अपना तिरस्कार करना बन सकता है। सभी अज्ञानी अत्यन्त प्रसिद्ध साक्षात्-प्रत्यक्ष आत्माका तिरस्कार अपरोक्षाद् आत्मानं तिरस्कृत्य अनात्मानम् करके अनात्मा शरीरादिको आत्मा मानकर,किर धर्म आत्मत्वेन परिगृह्य तम् अपि धर्माधर्मों कृत्वा और अधर्मका आचरण कर, उस प्राप्त किये हुए ( शरीररूप) आत्माका नाश करके दूसरे नये उपात्तम् आत्मानं हत्वा, अन्यम् आत्मानम् (शरीररूप ) आत्माको प्राप्त करते हैं । फिर उसका उपादत्ते नवम्, तंच एवं हत्वा अन्यम्, एवं तम् भी नाश करके अन्यको और उसका भी नाश करके ( पुनः ) अन्यको पाते रहते हैं। इस प्रकार बारंबार अपि हत्वा अन्यम् इति एवम् उपात्तम् उपात्तम् शरीररूप आत्माको प्राप्त करके उसकी हिंसा करते आत्मानं हन्ति इति आत्महा सर्वः अज्ञः । जाते हैं, अतः सभी अज्ञानी आत्महत्यारे हैं। या तु परमार्थात्मा असौ अपि सर्वदा जो वास्तवमें आत्मा है वह भी अविद्याद्वारा (अज्ञात अविद्यया हत इव विद्यमानकलाभावाद् इति उनके लिये उसका विद्यमान फल भी नहीं होता । होनेके कारण)सदा मारा हुआ-सा ही रहता है,क्योंकि सर्वे आत्महन एक अविद्वांसः। सुतरां सभी अविद्वान् आत्माको हिंसा करनेवाले ही हैं। . य. तु इतरो यथोक्तात्मदर्शी स उभयथा परन्तु जो इनसे अन्य उपर्युक्त आत्मस्वरूपको अपि आत्मना. आत्मानं न हिनस्ति ततो जाननेवाला है, वह दोनों प्रकारसे ही अपने द्वारा अपना नाश नहीं करता है। इसलिये वह परमगति याति परां गतिं यथोक्तं फलं तस्य भवति प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसे उपर्युक्त फल प्राप्त इत्यर्थः ॥२८॥ होता है ॥२८॥

  • यहाँ पृथ्वीपर अग्नि जलानेका निषेध करना तो इसलिये अयुक्त है कि यदि पृथ्वीपर अग्नि न जलायी

जाय तो कहाँ जलायी जाय ? और अन्तरिक्षमें जलानेका निषेध इसलिये ठीक नहीं कि वहाँ तो वह जलायी ही नहीं जा सकती।