पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३५२

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श्रीमद्भगवद्गीता यो हि कर्ता स कर्मफलेन लिप्यते अयं क्योंकि जो कर्ता होता है वही कर्मों के फलसे तु अकर्ता अतो न फलेन लिप्यते इत्यर्थः । लिप्त होता है । परन्तु यह अकर्ता है, इस- लिये फलसे लिप्त नहीं होता, यह अभिप्राय है । का पुनः देहेषु करोति लिप्यते च, यदि ५०-तो फिर शरीरमें ऐसा कौन है जो कर्म तावद् अन्यः परमात्मनो देही करोति लिप्यते करता है और उसके फलसे लिप्स होता है ? यदि यह मान लिया जाय कि, परमात्माने भिन्न कोई शरीरी च तत इदम् अनुपपन्नम् उक्त क्षेत्रज्ञेश्वरैकत्वम् कर्म करता है और उसके फलसे लिप्त होता है तब तो क्षेत्रा भी तू मुझे ही जान' इस प्रकार जो क्षेत्रज्ञ 'क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि' इत्यादि । और ईश्वरकी एकता कही है, वह अयुक्त ठहरेगी। अथ न अस्ति ईश्वराद् अन्यो देही कः यदि यह माना जाय कि ईश्वरसे पृथक् अन्य करोति लिप्यते च इति वाच्यं परो वा नास्ति कोई शरीरी नहीं है तो यह बतलाना चाहिये फिर कौन करता और लिप्त होता है ? अथवा यह इति । | कह देना चाहिये कि ( इन सबसे ) पर कोई | ईश्वर ही नहीं है। सर्वथा दुर्विज्ञेयं दुर्वाच्यं च इति भगवत्- ( बात तो यह है कि ) भगवान्द्वारा कहा प्रोक्तम् औपनिषदं दर्शनं परित्यक्तं वैशेषिकैः । हुआ यह उपनिषद्-रूप दर्शन सर्वथा दुर्विज्ञेय और सांख्याहतबौद्धः च । दुर्वाच्य है, इसीलिये वैशेषिक, सांख्य, जैन और | वौद्ध-मतावलम्बियों द्वारा यह छोड़ दिया गया है। तत्र अयं परिहारो भगवता खेन एव उक्तः उ०-इसका परिहार 'स्वभाव ही बर्तता है' 'स्वभावस्तु प्रवर्तते' इति । अविद्यामात्रस्वभावो ऐसा कहकर भगवान्ने खयं ही कर दिया है, हि करोति लिप्यते इति व्यवहारो भवति नतु लिल होता है' इसीसे यह व्यवहार चल रहा है । क्योंकि अविद्यामात्र स्वभाववाला ही 'करता है, और परमार्थत एकस्मिन् परमात्मनि तद् अस्ति । वास्तवमें अद्वितीय परमात्मामें वे ( 'कर्तापन' और 'लिप्त होना' आदि ) नहीं हैं। एतस्मिन् परमार्थसांख्यदर्शने सुतरां इस वास्तविक ज्ञानदर्शनमें स्थित हुए स्थितानां ज्ञाननिष्ठानां परमहंसपरित्राजकानां | ज्ञाननिष्ठ, परमहंस परिव्राजक संन्यासियोंका, जिन्होंने अविद्याकृत समस्त व्यवहारका तिरस्कार कर तिरस्कृताविद्याव्यवहाराणां कर्माधिकारो न दिया है, कोंमें अधिकार नहीं है-यह बात जगह- अस्ति इति तत्र तत्र दर्शितं भगवता ॥३१॥ जगह भगवान द्वारा दिखलायी गयी है ॥ ३१ ॥ अत किम् इव न करोति न लिप्यते इति अत्र परमात्मा किसकी भाँति न करता है और न दृष्टान्तम् आह- लिप्त होता है ? इसपर यहाँ दृष्टान्त कहते हैं--- यथा सर्वगतं सौम्यादाकाशं नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥ ३२ ॥