पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३५३

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शांकरभाष्य अध्याय १३ यथा सर्वगतं व्यापि अपि सत् सश्यात जैसे आकाश, सर्वत्र व्याप्त हुआ भी सूक्ष्म सूक्ष्मभावाद् आकाशं खं न उपलियते न होने के कारमा लिन नहीं होता-सम्बन्धयुक्त नहीं संवध्यते सर्वत्र अवस्थितो देहे तथा आमा न होता. वैसे ही आत्मा भी बारिम सर्वत्र स्थित रहते उपलिप्यते ॥३२॥ हुए भी (उसके शुभ-दोषोंले लिन नहीं होता ॥३२॥ --परमात्मा। w ". यथा प्रकाशयत्येकः कृत् लोकमिमं रविः । क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत ॥ ३३ ॥ यथा प्रकाशयति अवमासयति एकः कृत्स्नं : जैसे एक ही सूर्य इन समस्त लोकको प्रकाशित लोकम् इमं रविः सविता आदित्य तथा तद्वद् करता है, वैसे ही. महाभूतोंसे लेकर धृति- पर्यन्त बतलाये हुए समस्त क्षेत्रको वह एक होते महाभूतादिकृत्यन्तं क्षेत्रम् एकः सन् प्रकाशयति हुए भी प्रकाशित करता है। कौन करता है ? का क्षेत्री परमात्मा इत्यर्थः। क्षेत्रज्ञ- रविदृष्टान्तः अत्र आत्मन उभयार्थः अपि यहाँ आत्मामें सूर्यका दृष्टान्त दोनों प्रकारसे भवति रविवत् सर्वक्षेत्रेषु एक आत्मा अलेपकः : ही बटता है, आत्मा सूर्यकी भाँति समस्त शरीरोंमें च इति ॥३३॥ एक है और अलिस भी है ॥ ३३ ॥ समस्ताध्यायार्थोपसंहारार्थः अयं श्लोकः- सारे अव्यायके अर्थका उपसंहार करनेके लिये यह श्लोक ( कहा जाता है )- क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा। भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥ ३४ ॥ क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोः यथाव्याख्यातयोः एवं यथा-. जो पुरुष शास्त्र और आचार्यके उपदेशसे प्रदर्शितप्रकारेण अन्तरम् इतरेतरवै लक्ष ण्यविशेष उत्पन्न आत्मसाक्षात्काररूप ज्ञाननेत्रोंद्वारा, पहले ज्ञानचक्षुषा शास्त्राचार्योपदेशजनितम् आत्म- बतलाये हुए क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके अन्तरको उनकी प्रत्ययिकज्ञानं चक्षुः तेन ज्ञानचक्षुषा भूतप्रकृति- पारस्परिक विलक्षणताको, इस पूर्वदर्शित प्रकारसे मोक्षं च भूतानां प्रकृतिः अविद्यालक्षणा जान लेते हैं, और वैसे ही अव्यक्त नामक अविद्यारूप अव्यक्ताख्या तस्या भूतप्रकृतेः मोक्षणम् भूतोंकी प्रकृतिके मोक्षको, यानी उसका अभाव कर अभावगमनं च ये विदुः विजानन्ति यान्ति देनेको भी जानते हैं, वे परमार्थतत्त्वखरूप ब्रह्मको गच्छन्ति ते परं परमार्थतत्त्वं ब्रह्म न पुनः देहस् प्राप्त हो जाते हैं, पुनर्जन्म नहीं पाते ॥ ३४ ॥ आददते इत्यर्थः ॥३४॥ इति श्रीमहाभारते शतसाहस्रथा संहितायां वैयासिक्यों भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतासूप- निषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे क्षेत्रक्षेत्रज्ञ- योगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥