पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३५६

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श्रीमद्भगवद्गीता मम स्वभूता मदीया माया त्रिगुणात्मिका मुझ ईश्वरकी माया--- -त्रिगुणमयी प्रकृति, समस्त प्रकृतिः योनिः सर्वभूतानां सर्वकार्येभ्यो भूतोंकी योनि अर्थात् कारण है। समस्त कार्योंसे यानी उत्पत्तिशील वस्तुओंसे बड़ी होने के कारण और अपने महत्वाद् भरणात् च स्खविकाराणां महद ब्रह्म विकारोंको धारण करनेवाली होनेसे प्रकृति ही महत् इति योनिः एव विशिष्यते । ब्रह्म' इस विशेषणसे विशेपित की गयी है । तस्मिन् महति ब्रह्मणि योनौ गर्भ हिरण्य- उस महत् ब्रह्मरूप योनिमें, मैं-क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ गर्भस्य जन्मनो बीजं सर्वभूतजन्मकारणं बीजं | इन दो प्रकृतिरूप शक्तियोंवाला ईश्वर, हिरण्यगर्भके जन्मके बीजरूप गर्भको, यानी सब भूतोंकी उत्पत्तिके. दधामि निक्षिपामि क्षेत्रक्षेत्रज्ञप्रकृतिद्वयशक्तिमान् कारणरूप बीजको, स्थापित किया करता हूँ। अर्थात् ईश्वरः अहम् अविद्याकामकर्मोपाधिस्वरूपानुवि- अविद्या,कामना,कर्म और उपाधिके स्वरूपका अनुवर्तन धायिनं क्षेत्रनं क्षेत्रेण संयोजयामि इत्यर्थः । करनेवाले क्षेत्रज्ञको क्षेत्रसे संयुक्त किया करता हूँ। संभव उत्पत्तिः सर्वभूतानां हिरण्यगर्भोत्पत्ति- हे भारत! उस गर्भाधानसे हिरण्यगर्भकी उत्पत्ति- द्वारेण ततः तस्माद् गर्भाधानाद् भवति हे | द्वारा समस्त भूतोंकी उत्पत्ति होती है ॥३॥ भारत ॥३॥ सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तयः संभवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रदः पिता ॥ ४॥ देवपित्रमनुष्यपशुमृगादिसर्वयोनिषु कौन्तेय हे कुन्तीपुत्र ! देव, पितृ, मनुष्य, पशु और मृग आदि समस्त योनियोंमें जो मूर्तियाँ,अर्थात् शरीराकार मूर्तयो देहसंस्थानलक्षणा मूर्छिताङ्गावयवा मूर्तयः अलग-अलग अङ्गोंके अवयवोंकी रचनायुक्त व्यक्तियाँ, संभवन्ति याः तासां मूर्तीनां ब्रह्म महत् सर्वावस्थं उत्पन्न होती हैं, उन सब मूर्तियोंको सब प्रकारसे स्थित योनिः कारणम् अहम् ईशो वीजप्रदो गर्भाधानस्य महत् ब्रह्मरूप मेरी माया तो, गर्भ धारण करनेवाली योनि है, और मैं ईश्वर बीज प्रदान करनेवाला अर्थात् कर्ता पिता ॥४॥ गर्भाधान करनेवाला पिता हूँ॥४॥ के गुणाः कथं बन्नन्ति इति उच्यते- वे गुण कौन-कौन-से हैं और कैसे बाँधते हैं ? सो कहते हैं--- सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः । निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम् ॥ ५ ॥ सत्त्वं रजः तम इति एवंनामान:, गुणा इति सत्त्व, रज और तम-ऐसे नामोंवाले ये तीन गुण हैं। 'गुण' शब्द पारिभाषिक है । यहाँ रूप, रस पारिभाषिक शब्दो नरूपादिवद्र्व्याश्रिताः। आदिकी भाँति किसी द्रव्यके आश्रित गुणोंका ग्रहण नहीं है; तथा 'गुण' और 'गुणवान्' (प्रकृति ) का न च गुणगुणिनोः अन्यत्वम्अत्र विवक्षितम् । | भेद भी यहाँ विवक्षित नहीं है । Saasaram