पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३५७

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PHANTARApsn.in 1... ... ................ शांकरभाष्य अध्याय १४ . तस्माद् गुणा इच नित्यपरतन्त्राः क्षेत्र ( जैसे रूपादि गुण द्रव्यके अधीन होते हैं) वैसे ही मानो ये तत्वादि गुण सदा क्षेत्रज्ञके अधीन प्रति अविद्यात्मकत्वात् क्षेत्रमं निवनन्ति इव हुए ही अश्विात्मक होने के कारण क्षेत्रको आँध तम् आस्पदीकृत्य आत्मानं प्रतिलभन्ते इति लेते हैं । उस ( क्षेत्रह ) को आश्रय बनाकर ही ये गुण) अपना स्वरूप प्रकट करने में समर्थ निवनन्ति इति उच्यते । होते हैं, अतः बाँधते हैं ऐसा कहा जाता है। तेच प्रकृतिसंभवा भगवन्मायासंभवा निबध्नन्ति जिसकी भुजाएँ अतिशय सामर्थ्ययुक्त और इव हे महाबाहो महान्तौ समर्थतरी आजानु- जानु ( घुटनों तक लम्बी हों, उसका नाम महाबाहु है। हे महाबाहो ! भगवान्की मायासे उत्पन्न प्रलम्बौ वाहू यस्य स महाबाहुः हे महाबाहो ये तीनों गुण इस शरीरमें शरीरधारी अविनाशी देहे शरीरे देहिनं देहवन्तम् अव्ययम् अव्ययत्वं क्षेत्रको मानो बाँध लेते हैं। क्षेत्रका 'अविनाशित्व' च उक्तम् 'अनादित्वात्' इत्यादिश्लोके । 'अनादित्वात्' इत्यादि श्लोक में कहा ही है । ननु देही न लिप्यते इति उक्तं तत् कथम् पुल-पहले यह कहा है कि देही-आत्मा लिप्त नहीं होता, फिर यहाँ यह विपरीत बात कैसे कही इह निबन्धन्ति इति अन्यथा उच्यते, जाती है कि उसको गुण बाँधते हैं ? परिहृतम् अस्माभिः इवशब्देन निवनन्ति उ०-'इव' शब्दका अध्याहार करके हमने इस शंकाका परिहार कर दिया है । अर्थात् वास्तवमें इव इति ॥ ५॥ नहीं वाँधते, बाँधते हुए-से प्रतीत होते हैं ॥५॥ सत्त्व- लक्षणम् उच्यते- निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम् । सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गन तत्र सत्त्वादीनां सत्त्वस्य एव तावद् उन सत्त्व आदि तीन गुणों से पहले, गुणका लक्षण बतलाया जाता है- निर्मलत्वात् स्फटिकमणिः इव प्रकाशकम् सत्त्वगुण स्फटिक-मणिकी भाँति निर्मल होनेके । कारण, प्रकाशशील और उपद्रवरहित है (तो भी) अनामयं निरुपद्रवं सत्त्वं तद् निबध्नाति । वह बाँधता है। कथम् सुखसङ्गेन सुखी अहम् इति विषयभूतस्य कैसे बाँधता है ? सुखको आसक्तिसे । (वास्तवमें) सुखस्य विषयिणि आत्मनि संश्लेषापादनं मृपा इस प्रकार सम्बन्ध जोड़ लेना यह आत्माको विषयरूप सुखका विषयी आत्माके साथ 'मैं सुखी एव सुखे सञ्जनम् इति । सा एषा अविद्या । । मिथ्या ही सुखमें नियुक्त करना है। यही अविद्या है । न हि विषयधर्मों विषयिणो भवति । क्योंकि विषयके धर्म विषयीके ( कभी) नहीं होते. इच्छादि च धृत्यन्तं क्षेत्रस्य एव विषयस्य और इच्छांसे लेकर धृतिपर्यन्त सब धर्म विषयरूप । धर्म इति उक्तं भगवता। क्षेत्रके ही हैं---ऐसा भगवान्ने कहा है ।