३४२ श्रीमद्भगवद्गीता अतः अविद्यया एव स्वकीयधर्मभूतया सुतरां यह सिद्ध हुआ कि जो आरोपितभावसे विषयविपथ्यविवेकलक्षणया अखात्मभूते सुखे आत्माकी स्वकीय धर्मरूपा हो रही है और विषय- विषयीका अज्ञान ही जिसका स्वरूप है, ऐसी अविद्या- सञ्जयति इव सक्तम् इस करोति असुखिनं द्वारा ही सत्त्वगुण अनात्मखरूप सुग्वमें ( आत्माको) सुखिनम् इव । तथा ज्ञानसङ्गेन च । मानो नियुक्त-आसक्त कर देता है, यानी जो ( वास्तवमें ) सुखके सम्बन्धसे रहित है, उसे सुखी- सा कर देता है । इसी प्रकार ( यह सत्त्वगुण उसे) ज्ञानके संगसे भी ( बाँधता है)। ज्ञानम् इति सुखसाहचर्यात क्षेत्रस्य एव ज्ञान भी सुखका सार्थी होनेके कारण, क्षेत्र अन्तःकरणस्य धर्मो न आत्मनः । आत्म- अर्थात् , अन्तःकरणका ही धर्म है, आत्माका नहीं, क्योंकि आत्माका धर्म मान लेने पर उसमें आसक्त धर्मत्वे सङ्गानुपपत्तेः बन्धानुपपत्तेः च । होना और उसका बाँधना नहीं बन सकता । सुखे इव ज्ञानादौ सङ्गो मन्तव्यो है इसलिये हे निष्पाप ! अर्थात् व्यसन-दोप-रहित अर्जुन : सुम्बकी भांति ही ज्ञान आदिके 'संगको अनघ अव्यसन ॥६॥ । भी ( बन्धन करनेत्राला ) समझना चाहिये ॥६॥ रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गन देहिनम् ॥ ७ ॥ रजो रागात्मकं रञ्जनाद् रागो गैरिकादिवद् अप्राप्त वस्तुकी अभिलाषाका नाम 'तृष्णा' है रागात्मकं विद्धि जानीहि तृष्णासङ्गसमुद्भवं | और प्राप्त विपयोंमें मनकी प्रीतिरूप स्नेहका नाम 'आसक्ति' है, इन तृष्णा और आसक्तिकी उत्पत्तिके तृष्णा अप्राप्तामिलाप आसङ्गः प्रासे विषये कारणरूप रजोगुणको रागात्मक जान । अर्थात् मनसः प्रीतिलक्षणः संश्लेपः, तृष्णासङ्गयोः गेरू आदि रंगोंकी भाँति (पुरुषको विषयोंके साथ) उनमें आसक्त करके तद्रूप करनेवाला होनेसे, समुद्भवं तृष्णासङ्गसमुद्भवम् । इसको तू रागरूप समझ । तद् निवन्नाति तद् रजः कौन्तेय कर्मसङ्गेन हे कुन्तीपुत्र ! वह रजोगुण, इस शरीरधारी क्षेत्रज्ञको कर्मासक्तिसे बाँधता है । दृष्ट और अदृष्ट दृष्टादृष्टार्थेषु कर्मसु सञ्जनं तत्परता कर्मसङ्गः फल देनेवाले जो कर्म हैं उनमें आसक्ति–तत्परताका तेन निवनाति रजो देहिनम् ॥ ७॥ नाम कर्मासक्ति है, उसके द्वारा बाँधता है || ७॥ तमस्त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम् । प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत ॥८॥