पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३६३

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THESTRIGORAENTENT -RSimway समmamSAPOWEVERY ser ............ SAMPARAN स शांकरभाष्य अध्याय १४ MILLAH वृत्तनिबद्धस्य च पुरुषस्य या गतिः इति : पुरुषकी जो गति होती है. इन सब मिथ्याज्ञानरूप एतत्सर्व मिथ्याज्ञानम् अज्ञानमूलं बन्धकारणं अज्ञानमूलक बन्धनके कारणोंको, विस्तारपूर्वक विस्तरेण उक्त्वा अधुना मुम्बग्दर्शनाद् मोक्षो बललाकर, अब यथार्थ ज्ञानसे मोक्ष (कैसे होता है भो) वक्तव्य इति आह भगवान्- बतलाना चाहिये इसलिये भगवान् बोले- नान्यं गुणभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति । गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ॥ १६ ॥ नान्यं कार्यकरणविषयाकारपरिणतेभ्यो जिस तमय द्रष्टा पुरुष ज्ञानी होकर, कार्य करण गुणेन्यः कर्तारम् अन्यं यदा द्रष्टा विद्वान् सन् न और विषय के आकार में परिणत हुए गुणों से अतिरिक्त, अन्य किसीको (भी) को नहीं देखता है. अर्थात् अनुपश्यति ! गुणा एव सर्वावस्थाः सर्वकर्मणा यही देखता है कि समस्त अवस्थाओंमें स्थित हुए कार इति एवं पश्यति । गुणेभ्यः च परं गुण ही समस्त कर्मोके कर्ता हैं, तथा गुणों के व्यापार- गुणब्यापारसाक्षिभूतं वेत्ति मात्रं मम भावं के साक्षीरूप आमाको गुणों से पर जानता है, तब स द्रष्टा अधिगच्छति ॥ १९ ॥ वह द्रष्टा मेरे भावको प्राप्त होता है ।। १९ ।। . . कथम् अधिगच्छति इति उच्यते-- कैसे प्राप्त होता है ? सो बतलाते हैं-- गुणानेतानतीत्य त्रीन्देही देहसमुद्भवान् । जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते गुणान् एतान् यथोक्तान् अतीत्य जीवन देहोत्पत्ति के बीजभूत, इन मायोपाधिक पूर्वोक्त एव अतिक्रम्य मायोपाधिभूतान् त्रीन् देही | तीनों गुणोंका उल्लंघन कर, अर्थात् जीवितावस्थामें देहसमुद्भवान् देहोत्पत्तिवीजभूतान्, जन्ममृत्यु- ही इनका अतिक्रम करके, यह देहधारी विद्वान् जरादुःखैः, जन्म च मृत्युः च जरा च जीता हुआ ही जन्म, मृत्यु, बुढ़ापे और दुःखोंसे दुःखानि च तैः जीवन् एव विमुक्तः सन् मुक्त होकर अमृतका अनुभव करता है। अभिप्राय विद्वान् अमृतम् अश्नुते । एवं मद्भावम् यह कि इस प्रकार बह मेरे भावको प्राप्त हो अधिगच्छति इत्यर्थः ॥ २०॥ जाता है ॥२०॥ जीवन एव गुणान् अतीत्य अमृतम् | ( शरीरधारी जीव ) 'जीता हुआ ही गुणोंको अश्नुते इति प्रश्नबीजं प्रतिलभ्य- अतिक्रम करके अमृतका अनुभव करता है। इस अर्जुन उवाच- प्रश्न-बीजको पाकर अर्जुन बोला- कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो । किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१॥