पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३६६

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श्रीमद्भगवद्गीता तुल्यप्रियाप्रियः प्रियं च अप्रियं च प्रियानिये जो तुल्यप्रियाप्रिय है अर्थात् प्रिय और अप्रिय तुल्ये समे यस्य सः अयं तुल्यग्रियाप्रियः। दोनोंहीको जो समान समझता है और जो धीर अर्थात् | बुद्धिमान है तथा जो तुल्यनिन्दात्म संस्तुति है अर्थात् श्रीरो धीमान् ! तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः निन्दा च जिसके विचारमें अपनी चिन्दा और स्तुति समान आत्मसंस्तुतिः च तुल्ये निन्दात्मसंस्तुती हो गयी है, ऐसा अपनी निन्दा-स्तुतिको समान यस्य यतेः स तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥२४॥ ! समझनेवाला अति है ॥२४|| कि च---- । तथा--- मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो भित्रारिपक्षयोः । सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥ मानापमानयोः तुल्यः समो निर्विकारः । जो मान और अपमानमें समान अर्थात् निर्विकार रहता है तथा मित्र और शत्रुपक्षके तुल्यो मित्रारिपक्षयोः, यद्यपि उदासीना भवन्ति लिये तुल्य है । यद्यपि कोई-कोई पुरुप अपने केचित् स्वाभिप्रायेण तथापि पराभिप्रायेण विचारसे तो उदासीन होते हैं परन्तु दूसरोंकी समझसे वे मित्र या शत्रुपक्षबाले-से ही होते हैं मित्रारिपक्षयोः इव भवन्ति इति तुल्यो इसलिये कहते हैं कि जो मित्र और शत्रुपक्षके मित्रारिपक्षयोः इति आह । लिये तुल्य है। सर्वारम्भपरित्यागी · दृष्टादृष्टार्थानि कर्माणि तथा जो सारे आरम्भोंका त्याग करनेवाला है। आरभ्यन्ते इति आरम्भाः सर्वान् आरम्भान् दृष्ट और अदृष्ट फलके लिये किये जानेवाले कर्मोका नाम 'आरम्भ है, ऐसे समस्त आरम्भोंको त्याग परित्यक्तं शीलम् अस्ख इति सर्वारम्भपरित्यागी करनेका जिसका खभाव है वह 'सर्वारम्भपरित्यागी' देहधारणमात्रनिमित्तव्यतिरेकेण सर्वकर्मपरि- है अर्थात् जो केवल शरीरधारणके लिये आवश्यक कर्मोके सिवा सारे कर्मोंका त्याग कर देनेवाला है, त्यागी इत्यर्थः । गुणातीतः स उच्यते । वह पुरुष 'गुणातीत' कहलाता है। 'उदासीनवत्' इत्यादि 'गुणातीतः स उच्यते' "उदासीनवत् यहाँ से लेकर गुणातीतः स उच्यते' यहाँतक जो भाव बतलाये गये हैं, वे सत्र जबतक इति एतद् अन्तम् उक्तं यावद् यत्नसाध्य प्रयत्नसे सम्पादन करनेयोग्य रहते हैं, तबतक तो तावत् संन्यासिनः अनुष्ठेयं गुणातीतत्वसाधनं मुमुक्षु-संन्यासीके लिये अनुष्ठान करनेयोग्य मुमुक्षोः स्थिरीभूतं तु खसंवेचं सद् गुणातीतस्य हो जाते हैं, तो गुणातीत संन्यासीके वसंवेद्य | गुणातीतत्व-प्राप्तिके साधन हैं और जब वे स्थिर यतेः लक्षणं भवति इति ॥२५॥ | लक्षण बन जाते हैं ॥२५॥ अधुना कथं च त्रीन् गुणान् अतिवर्तते इति प्रश्नस्य प्रतिवचनम् आह- मनुष्य इन तीनों गुणोंसे किस प्रकार अतीत होता है ? अब इस प्रश्नका उत्तर देते हैं-