पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३६९

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HET कर HOPERTREETHARVEEARCH ASHTinyAIRAMPAWARE...M .................................... ॐ पञ्चदशोऽध्यायः यसाद मदधीनं कर्मिणां कर्मफलं ज्ञानिनां क्योंकि कर्म करनेवालोंका कर्मफल और ज्ञानियों - च ज्ञानफलम् अतो भक्तियोगेन मां ये सेवन्ते का ज्ञानफल मेरे अधीन है ! इसलिये जो भक्तियोगसे मुझे भजते हैं, वे भी मेरी कृपाले गुगातीत होकर ते मत्प्रसादाद् ज्ञानप्राधिक्रमेण गुणातीता ज्ञान-प्राप्तिके क्रमसे, मोझलाभ करते हैं। तो फिर मोक्षं गच्छन्ति किनु वक्तव्यम् आत्मनः तत्त्वम् आत्मतत्त्वको यथार्थ जाननेवालों के लिये तो कहना एव सम्यग् विजानन्त इति अतो भगवान् ही क्या है। सुतराम् अर्जुनके न पूछने पर भी, अर्जुनेन अपृष्टम् अपि आत्मनः तत्त्वं विवक्षुः : अपना तत्त्र कहनेकी इच्छासे भगवान् 'ऊर्ध्वमूलम् उवाच-ऊर्ध्वमूलम् इत्यादि । इत्यादि बचन बोले- तंत्र तावद् वृक्षरूपककल्प नया वैराग्यहेतोः यहां पहले वैराग्यके लिये वृक्षस्वरूपकी कल्पना संसारस्वरूपं वर्णयति विरक्तस्य हि संसाराद् संसारसे विरक्त हुए पुरुषको ही भगवान्का तत्त्व करके, संचारके स्वरूपका वर्णन करते हैं, क्योंकि भगवत्तत्वज्ञाने अधिकारो न अन्यस्य इति- 'जाननेमें अधिकार है, अन्यको नहीं । अतः श्रीभगवानुवाच--- ! श्रीभगवान् बोले- ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् । छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥ १॥ ऊर्ध्वमूलं कालतः मूक्ष्मत्वात् कारणत्वाद् (यह संसाररूप वृक्ष ) ऊर्ध्वमूलवाला है । कालकी नित्यत्वाद् महत्त्वात् च ऊर्ध्वम् उच्यते ब्रह्म अपेक्षा भी सूक्ष्म, सबका कारण, नित्य और महान् होनेके कारण अव्यक्त-माया-शक्तियुक्त ब्रह्म अव्यक्तमायाशक्तिमत् तद् मूलम् अस्य इति सः सबसे ऊँचा कहा जाता है, वहीं इसका मूल है, अयं संसारवृक्ष ऊर्ध्वमूलः । श्रुतेःच-ऊर्ध्वमूलो- इसलिये यह संसारवृक्ष ऊपरकी ओर मूलवाला है । 'ऊपर मूल और नीचे शाखाबाला' इस ऽवाशाख:' (क००२।६११) इति । श्रुतिसे भी यही प्रमाणित होता है । पुराणे च-- पुराणमें भी कहा है- 'अव्यक्तमूलप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोत्थितः । 'अव्यक्तरूप मूलसे उत्पन्न हुआ, उसीके अनुनहले बढ़ा हुआ, बुद्धिरूप प्रधान शाखासे बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियान्तरकोटरः ।। युक्त, बीच-बीच में इन्द्रियरूप कोटरोंवाला, महा- महाभूतविशाखश्च विषयैः पत्रवांस्तथा । भूतरूप शाखा-प्रतिशाखाओंवाला, विषय रूप पत्तोंवाला, धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पुष्पोवाला धर्माधर्मसुपुष्पश्च सुखदुःखफलोदयः ॥ तथा जिसमें सुख-दुःखरूप फल लगे हुए हैं ऐसा Aniamayawati