पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७०

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S श्रीमद्भगवद्गीता आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः । यह सब भूतोंका आजीव्य सनातन ब्रह्मवृक्ष है। एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रमाचरति नित्यशः ।। यही ब्रह्मवन है, इसी में ब्रह्म सदा रहता है। ऐसे एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना। इस ब्रह्मवृक्षका ज्ञानरूप श्रेष्ट खड्गद्वारा छेदन- ततश्चात्मरति प्राप्य तस्माचावर्तते पुनः॥' भेदन करके और आत्मामें प्रीतिलाभ करके फिर इत्यादि। वहाँसे नहीं लौटता इत्यादि । तम् ऊर्ध्वमूलं संसारमायामयं वृक्षम् अधःशारखं ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखाबाले इस महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा मायामय संसारवृक्षको, अर्थात् महत्तत्त्व, अहंकार, इव अस्य | तन्मात्रादि, शाखाकी भांति जिसके नीचे हैं, ऐसे अधो भवन्ति इति सः अयम् अधाशाखः तम् इस नीचेकी ओर शाखावाले और कलतक भी न अधःशाखं न श्वः अपि स्थाता इति अश्वत्थः तं रहनेवाले इस क्षणभंगुर अश्वत्थ-वृक्षको अव्यय क्षणप्रध्वंसिनम् अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्ययम् । कहते हैं । संसारमायामयम् अनादिकालप्रवृत्तत्वात् सः यह मायामय संसार, अनादि कालसे चला आ रहा है, इसीसे यह संसारवृक्ष अव्यय माना जाता है तथा अर्थ संसारवृक्षः अव्ययः अनाअन्तदेहादि- यह आदि-अन्तसे रहित शरीर आदिकी परम्पराका सन्तानाश्रयो हि सुप्रसिद्धः तम् अव्ययम् । आश्रय सुप्रसिद्ध है, अतः इसको अव्यय कहते हैं। तस्य एवं संसारवृक्षस्य इदम् अन्यद् उस संसार-वृक्षका ही यह अन्य विशेषण विशेषणम् । ( कहा जाता) है। छन्दांसि छादनाद् ऋग्यजुःसामलक्षणानि ऋक्, यजु और सामरूप वेद, जिस संसारवृक्षके यस्य संसारवृक्षस्य पर्णानि इव पर्णानि । यथा पत्तोंकी भाँति रक्षा करनेवाले होनेसे पत्ते हैं । जैसे वृक्षस्य परिरक्षणार्थानि पर्णानि तथा वेदाः पत्ते वृक्षकी रक्षा करनेवाले होते हैं, वैसे ही वेद धर्म- संसारवृक्षपरिरक्षणार्था धर्माधर्मतद्धेतुफल- अधर्म, उनके कारण और फलको प्रकाशित करने- प्रकाशनार्थत्वात् । वाले होनेसे, संसाररूप वृक्षकी रक्षा करनेवाले हैं । यथाव्याख्यातं संसारवृक्षं समूलं यः तं वेद ऐसा जो यह विस्तारपूर्वक बतलाया हुआ संसारवृक्ष है, इसको जो मूलके सहित जानता स वेदविद् वेदार्थविद् इत्यर्थः । है, वह वेदको जाननेवाला अर्थात् वेदके अर्थको जाननेवाला है। न हि संसारवृक्षाद् अस्मात् समूलाद् ज्ञेयः क्योंकि इस मूलसहित संसारवृक्षसे अतिरिक्त अन्यः अणुमात्रः अपि अवशिष्टः अस्ति अतः | अन्य जाननेयोग्य वस्तु अणुमात्र भी नहीं है। सुतरां जो इस प्रकार वेदार्थको जाननेवाला है वह सर्वज्ञः स यो वेदार्थविद् इति समूलवृक्ष- सर्वज्ञ है । इस प्रकार मूलसहित संसारवृक्षके ज्ञानकी ज्ञानं स्तौति ॥१॥ | स्तुति करते हैं ।।१॥

  • जिसके आश्रयसे जीविका निर्वाह की जाय, उसे आजीव्य कहते हैं।