पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७

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शांकरभाष्य अध्याय २ तथा न च एव न भविष्यामः, किन्तु इसके बाद अर्थात् इन शरीरोंका नाश होनेके भविष्यामः एच सर्वे वयम् अतः अस्मात् देह- बाद भी हम सब नहीं रहेंगे सो नहीं किन्तु अवश्य विनाशात् परम् उत्तरकाले अपि, त्रिषु अपि रहेंगे । अभिप्राय यह है कि तीनों कालोंमें ही कालेषु नित्या आत्मस्वरूपेण इति अर्थः । आमरूपसे सब नित्य हैं। देहभेदानुवृत्या बहुवचनं न आत्मभेदा- यहाँ बहुवचनका प्रयोग देहभेदके विचारसे किया भिप्रायेण ॥१२॥ गया है, आत्मभेदके अभिप्रायसे नहीं ॥ १२ ।। तत्र कथम् इव नित्यः आत्मा इति आत्मा किसके सदृश नित्य है ? इसपर दृष्टान्त दृष्टान्तम् आह- कहते हैं- देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा । तथा देहान्तरप्राप्तिर्षीरस्तत्र न मुह्यति ॥ १३ ॥ देहः अस्य अस्ति इति देही तस्य देहिनो जिसका देह है वह देही है, उस देहीकी देहवदात्मनः अस्मिन् वर्तमाने देहे यथा येन | अर्थात् शरीरधारी आत्माकी इस-वर्तमान शरीरमें प्रकारेण कौमारं कुमारभावो बाल्यावस्था, जैसे कौमार-बाल्यावस्था, यौवन-तरुणावस्था और यौवनं यूनो भावो मध्यमावस्था, जरा वयो- हानिः जीर्णावस्था इति एताः तिस्रः अवस्था जरा-वृद्धावस्था--ये परस्पर-विलक्षण तीनों अन्योन्यविलक्षणा। अवस्थाएँ होती हैं। तासां प्रथमावस्थानाशे न नाशो द्वितीया- नमें पहली अवस्थाके नाशसे आत्माका नाश वस्थोपजनने न उपजननम् आत्मनः, किं तर्हि, नहीं होता और दूसरी अवस्थाकी उत्पत्तिसे आत्माकी अविक्रियस्य एवं द्वितीयतृतीयावस्थाप्राप्तिः उत्पत्ति नहीं होती; तो फिर क्या होता है ? कि निर्विकार आत्माको ही दूसरी और तीसरी अवस्थाको आत्मनो दृष्टा। | प्राप्ति होती हुई देखी गयी है । तथा तद्वत् एव देहात् अन्यो देहान्तरं तस्य वैसे ही निर्विकार आत्माको ही देहान्तरकी प्राप्ति प्राप्तिः देहान्तरप्राप्तिः अविक्रियस्य एव आत्मन अर्थात् इस शरीरसे दूसरे शरीरका नाम देहान्तर है, इत्यर्थः। उसकी प्राप्ति होती है ( होती हुई-सी दीखती है)। धीरो धीमान् तत्र एवं सति न मुह्यति ऐसा होनेसे अर्थात आत्माको निर्विकार और नित्य समझ लेनेके कारण धोर-बुद्धिमान् इस विषय में न मोहम् आपद्यते ॥१३॥ मोहित नहीं होता-मोहको प्राप्त नहीं होता ॥ १३ ॥ यद्यपि आत्मविनाशनिमित्तो मोहो न यद्यपि 'आत्मा नित्य है' ऐसे जाननेवाले ज्ञानीको संभवति नित्य आत्मा इति विजानतः आत्म-विनाश-निमित्तक मोह होना तो सम्भव नहीं, तथापि शीतोष्णसुखदुःखप्राप्तिनिमित्तो मोहो तथापि शीत-उष्ण और सुख-दुःख-प्राप्ति-जनित लौकिको दृश्यते, सुखवियोगनिमित्तो दुःख- लौकिक मोह तथा सुख-वियोग-जनित और दुःख- संयोगनिमित्तः च शोक इति एतत् अर्जुनस्य | संयोग-जनित शोक भी होता हुआ देखा जाता है, ऐसे वचनम् आशङ्कय आह- अर्जुनके वचनोंकी आशंका करके भगवान् कहते हैं--