पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७१

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an......... BADANEMAymYHRY --:-...... op.comsAREHENSIvargam .*, W .. Hindi ..................... :: ............ शांकरभाष्य अध्याय १५ CORO

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तस्य एक संसारवृक्षस्य अपरा अवय- उसी संसारवृक्षके अन्य अङ्गोंकी कल्पना कही कल्पना उच्यते- जाती है-- अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः । अधश्च मूलान्यनुसंततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ॥ २ ॥ अवो मनुष्यादिभ्यो यावत् स्थावरम् ऊर्च: अपने उपादान-कारणरूप सत्व, रज और तम-इन च यावद् ब्रह्मा विश्वसृजो धर्म इति एतद् तीनों गुणों से बढ़ी हुई-स्थूलभावको प्राप्त हुई और विषयरूपी झोपलोवाली, उस वृक्षकी बहुत-सी अन्तं यथाक्रम यथाश्रुतं ज्ञानकर्मफलानि शाखाएँ, जोकि अपने-अपने कर्म और ज्ञानके तस्य वृक्षस्य शाखा इव शाखाः प्रसूताः अनुरूप- कर्म और ज्ञानको फलस्वरूपा योनियाँ प्रगता गुणप्रवृद्धा गुणैः सत्वरजस्तमोभिः हैं, नीचेकी ओर मनुष्यों से लेकर स्थावरपर्यन्त और प्रवृद्धाः स्थूलीकृता उपादानभूतः विषयप्रवाला ऊपरकी और धर्म यानी विश्वकर्ता ब्रह्मापर्यन्त, वृक्ष- विषयाः शब्दादयः प्रवाला इव देहादिकर्म- देहादि शाखाओंसे, शब्दादि विषय, कोंपलोंके समान की शाखाओंके समान फैली हुई हैं । कर्मफलरूप फलेभ्यः शाखाभ्यः अङ्कुरीभवन्ति इव तेन अंकुरित-से होते हैं, इसलिये वे शरीरादिरूप शाखाएँ विषयमाला शाखा विषयरूपी कोपलोवाली हैं। संसारवृक्षस्य परममूलम् उपादानं कारणं संसारवृक्षका परम मूल----उपादानकारण पहले पूर्वम् उक्तम् अथ इदानी कर्मफलजनितराग- बतलाया जा चुका है । अब कर्मफलजनित रागद्वेष आदिकी वासनाएँ जो मूलके समान धर्म-अधर्म-विषयक द्वेषादिवासना मूलानि इब धर्माधर्मप्रवृत्ति- प्रवृत्तिकी कारण और अवान्तरसे ( आगे-पीछे ) कारणानि अवान्तर्भावीनि तानि अधः च होनेवाली हैं, ( उनको कहते हैं) वे मनुष्यलोकमें कर्मानुवन्धिनी वासनारूप मूलें, देवादिकी अपेक्षा देवायपेक्षया मूलानि अनुसंततानि अनुप्रविष्टानि नीचे भी, अविच्छिन्नरूपसे फैली हुई हैं । पुण्य- कर्मानुबन्धीनि कर्म धर्माधर्मलक्षणम् अनुबन्धः पापरूप कर्म जिनका अनुबन्ध यानी पीछे-पीछे होनेवाला है अर्थात् जिनकी उत्पत्तिका अनुवर्तन पश्चाद्भावी येषाम् उद्भूतिम् अनुभवति इति करनेवाला है, के कर्मानुबन्बी कहलाती हैं । यहाँ तानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके विशेषतः मनुष्योका ही विशेषरूपसे कर्ममें अधिकार प्रसिद्ध अत्र हि मनुष्याणां कर्माधिकार प्रसिद्धः॥२॥ है ( इसलिये वे मूलें मनुष्यलोकमें कर्मानुवन्धिनी बतलायी गयी हैं ) [२!! यतु अयं वर्णितः संसारवृक्षः- यह जो वर्णन किया हुआ संसारवृक्ष है-- न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च संप्रतिष्ठा । अश्वत्थमेनं सुविरूढमूलभसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा ॥ ३ ॥