पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७२

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श्रीमद्भगवद्गीता न रूपम् अस्य इह यथा वर्णित तथा न एव इसका स्वरूप जैसा यहाँ वर्णन किया गया है, वैसा उपलब्ध नहीं होता है क्योंकि यह स्वमकी वस्तु, उपलभ्यते खप्नमरीच्युदकमायागन्धर्वनगर- मृगतृष्णाके जल और मायारचित गन्धर्थ-नगरके समत्वाद् दृधनष्टस्वरूपो हि स इति अत एव समान होने से, देखते-देखते नष्ट होनेवाला है। इसी कारण इसका अन्त अर्थात् अन्तिमावस्था-अवसान न अन्तो न पर्यन्तो निष्ठा समाप्ति वा विद्यते । या समाप्ति भी नहीं है। तथा न च आदिः इत आरभ्य अयं प्रवृत्त तथा इसका आदि भी नहीं है, अर्थात् यहाँसे आरम्भ होकर यह संसार चला है, ऐसा किसीसे इति न केनचिद् गम्यते । न च संप्रतिष्टा नहीं जाना जा सकता और इसकी संप्रतिष्ठा-स्थिति स्थितिः मध्यम् अस्य न केनचिद् उपलभ्यते । यानी आदि और अन्तके बीचकी अवस्था भी किसीको उपलब्ध नहीं होती। अश्वत्थम् एनं यथोक्तं सुविरूटमूलं सुष्टु इस उपर्युक्त सुविरूढमूल यानी जिसकी मूल-जड़ें विरूढानि विरोहं गतानि मूलानि यस्य तम् अन्यन्त दृढ़ हो गया है-भलीप्रकार संगठित हो चुकी हैं, ऐसे संसाररूप अश्वत्थको, असंगशस्त्रसे छेदन एनं सुविरूढमूलम् असङ्गशस्त्रेण असङ्ग पुत्र- करके, यानी पुत्रैषणा, वित्तपणा और लोकैप्रणादिसे वित्तलोकैपणादिभ्यो व्युत्थानं तेन असङ्गशस्त्रेण उपराम हो जाना ही 'असंग' है, ऐसे असंगशस्त्रसे दृढेन परमात्माभिमुख्यनिश्चयदृढीकृतेन पुनः जो कि परमात्माके सम्मुख होनारूप निश्चयसे दृढ़ किया हुआ है और वारंवार विवेकाभ्यासरूप पत्थर- पुनर्विवेकाभ्यासाश्मनिशितेन छित्त्वा संसार- पर घिसकर ना किया हुआ है, इस संसार-वृक्षको वृक्षं सबीजम् उद्धृत्य ॥३॥ बीजसहित उखाड़कर |॥ ३ ॥ ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः । तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी ॥ ४ ॥ ततः पश्चात् पदं वैष्णवं तत्परिमार्गितव्यं ! उसके पश्चात् उस परम वैष्णव-पदको खोजना परिमार्गणम् अन्वेषणं ज्ञातव्यम् इत्यर्थः। चाहिये, अर्थात् जानना चाहिये कि जिस पदमें यस्मिन् पदे गताः प्रविष्टा न निवर्तन्ति न आवर्तन्ते पहुँचे हुए पुरुष, फिर संसारमें नहीं लौटते-- भूयः पुनः संसाराय। पुनर्जन्म ग्रहण नहीं करते। कथं परिमार्गितव्यम् इति आह- ( उस पदको) कैसे खोजना चाहिये ? सो कहते हैं- तम् एव च यः पदशब्देन उक्त आद्यम् आदौ जो पदशब्दसे कहा गया है, उसी आदिपुरुषकी भवं पुरुषं प्रपद्ये इति एवं परिमार्गितव्यं मैं शरण हूँ, इस भावसे अर्थात् उसके शरणागत तच्छरणतया इत्यर्थः। होकर खोजना चाहिये।