पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७५

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शांकरभाष्य अध्याय १५ न एष दोषः अविद्याकृतोपाधिपरिच्छिन्न उ.-यह दोष नहीं है। क्योंकि अविद्याकृत उपाधिसे परिच्छिन्न, एकदेश ही अंशकी माँति माना एकदेशः अंश इव कल्पितो यतः । दर्शितः च गया है ! यह बात क्षेत्राध्यायमें विस्तारपूर्वक अयम् अर्थः क्षेत्राध्याये विस्तरशः । दिखलायी गयी है। सच जीवो मदंशत्वेन कल्पितः कथं वह मेरा अंशल्प माना हुआ जीव, संसारमें कैसे आता है और कैसे शरीर छोड़कर जाता है, सो संसरति उत्क्रामति च इति उच्यते- बतलाते हैं- मनःषष्ठानि इन्द्रियाणि श्रोत्रादीनि प्रकृतिस्थानि ( यह जीवात्मा) मन जिनमें छठा है, ऐसी स्वस्थाने कर्णशष्कुल्यादौ प्रकृतौ स्थितानि कर्णछिद्रादि अपने-अपने गोलकरूप प्रकृतियोंमें कर्षति आकर्षति ॥७॥ स्थित हुई,श्रोत्रादि इन्द्रियों को आकर्षित करता है |७|| कस्मिन् काले- किस कालमें (आकर्षित करता है ? शरीरं यदवासोति यच्चाप्युत्काभतीश्वरः । गृहीत्वैतानि संयाति बायुर्गन्धानिबाशयात् ॥ ८ ॥ यत् च अपि यदा च अपि उत्क्रामति ईश्वरो जब यह देहादि-संघातका स्वामी जीवात्मा, शरीर- देहादिसंघातस्वामी जीवः तदा कर्षति इति को छोड़कर जाता है तब ( इनको ) आकर्षित करता श्लोकस्य द्वितीयपादः अर्थवशात् प्राथम्येन है। पहले और इस श्लोकके अर्थकी संगतिके वशसे संबध्यते । । श्लोकके दूसरे पादकी व्याख्या पहले की गयी है। यदा च पूर्वसात् शरीरात् शरीरान्तरम् तथा जब यह जीवात्मा, पहले शरीरसे (निकल- आप्नोति तदा गृहीत्वा एतानि मन पष्ठानि कर) दूसरे शरीरको पाता है, तब मनसहित इन इन्द्रियाणि संयाति सम्यग् याति गच्छति । छः इन्द्रियोंको, साथ लेकर जाता है । किम् इव इति आह वायुः पयनो गन्धान् इव कैसे लेकर जाता है ? सो बतलाते हैं--जैसे वायु गन्धके स्थानोंसे यानी पुष्पादिसे गन्धको आशयात् पुष्पादेः॥८॥ लेकर जाता है, वैसे ही ॥ ८ ॥ कानि पुनः तानि इति- वे ( मनसहित छः इन्द्रियाँ ) कौन-सी हैं ? श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय मनवाय विषयानुपसेवते ॥ ६॥ श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च त्वगिन्द्रियं रसनं यह शरीरमें स्थित (जीवात्मा) श्रोत्र, चक्षु, त्वचा घाणम् एव च मनः च षष्ठं प्रत्येकम् इन्द्रियेण सह रसना और नासिका इनमें से प्रत्येक इन्द्रियको अधिष्ठाय देहस्थो . विषयान् शब्दादीन् । और उसके साथ छठे मनको, आनय बनाकर, उपसेवते ॥९॥ शब्दादि विषयोंका सेवन किया करता है ॥९॥