पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७६

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. ""PPAPER श्रीमद्भगवद्गीता यथा हि लोके तुल्ये अपि मुखसंस्थाने न जैसे संसारमें देखा जाता है कि समान भावसे सम्मुख--सामने स्थित होनेपर भी, काष्ठ या भित्ति काष्ठकुड्यादौ मुखम् आविर्भवति आदर्शादौ तु आदिमें मुखका प्रतिबिम्ब नहीं दीखता, पर दर्पण स्वच्छे खच्छतरे च तारतम्येन आविर्भवति । आदि पदार्थोंमें, जो जितना स्वच्छ और खच्छतर | होता है उसमें उसी तारतम्यसे, स्वच्छ और स्वच्छतर दीखता है, वैसे ही (इस विषयमें समझो ) ॥१२॥ तद्वत् ॥१२॥ तथा- कि च- गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा । पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः ॥ १३ ॥ गां पृथिवीम् आविश्य प्रविश्य धारयामि भूतानि मैं पृथिवीमें प्रविष्ट होकर अपने उस बलसे, जो कि कामना और आसक्तिसे रहित मेरा ऐश्वर्य-बल जगद् अहम् ओजसा बलेन यद् बलं कामराग- विवर्जितम् ऐश्वरं जगद्विधारणाय पृथिव्यां जगत्को धारण करनेके लिये पृथिवीमें प्रविष्ट है, प्रविष्टं येन गुर्वी पृथिवी न अधः पतति न गिरती और फटती भी नहीं, सारे जगत्को धारण जिस बलके कारण भारवती पृथिवी नीचे नहीं विदीर्यते च। करता हूँ। तथा च मन्त्रवर्ण:--'येन द्यौरुया पृथिवी यही बात वेदमन्त्र भी कहते हैं कि च दृढा' (तै० सं०४।१।८) इति । स 'जिससे धुलोक उन्न है और पृथिवी दृढ़ है। तथा 'वह पृथिवीको धारण करता है' इत्यादि । दाधार पृथिवीम्' (तै० सं०४।१८) इत्यादिः अतः यह कहना ठीक ही है कि मैं पृथिवीमें प्रविष्ट च । अतो गाम् आविश्य च भूतानि चरा- होकर, चराचर समस्त भूतप्राणियोंको धारण चराणि धारयामि इति युक्तम् उक्तम् । करता हूँ। किं च पृथिव्यां जाता ओषधीः सर्वा तथा मैं ही रसस्वरूप चन्द्रमा होकर पृथिवीमें वीहियवाद्याः पुष्णामि पुष्टिमती रसखादुमतीः ! उत्पन्न होनेवाली धान, जौ आदि समस्त ओषधियोंका च करोमि सोमो भूत्वा रसात्मकः सोमः सर्व- पोषण करता हूँ अर्थात् उनको पुष्ट और खादयुक्त रसात्मको रसस्वभावः सर्वरसानाम् आकरः जिसका स्वभाव है, जो समस्त रसोंकी खानि हैं वह किया करता हूँ | जो सब रसोंका आत्मा है, रस ही सोमः स हि सर्वा ओषधीः स्वात्मरसानुप्रवेशेन सौम है, वही अपने रसका सञ्चार करके, समस्त पुष्णाति ॥१३॥ वनस्पतियोंका पोषण किया करता है ॥१३॥ तथा-- अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः। प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम् ॥ १४ ॥