पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७७

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शांकरभाष्य अध्याय १५ ३६३ अहम् एव वैश्वानर उदरस्था अग्निः भूत्वा 'अयम् मैं ही, पेटनें रहनेवाला जठराग्नि होकर अर्थात् अग्निवैश्वानरो योऽयमन्तः पुरुषे येनेदमन्नं पच्यते (इः 'यह अग्नि वैश्वानर है जो कि पुरुषके भीतर स्थित है और जिससे यह (खाया हुआ) अन्न उ०५।९।१ ) इत्यादिश्रुतेः वैश्वानरः सन् प्राणिनां पचता हैं इत्यादि श्रुतियोंसे जिसका वर्णन किया प्राणवतां देहम् आश्रितः प्रविष्टः प्राणापान- गया है, वह वैश्वानर होकर, प्राणियोंके शरीरमें स्थित समायुक्तः प्राणापानाभ्यां समायुक्तः संयुक्तः -प्रविष्ट होकर प्राण और अपानवायुसे संयुक्त पचामि पक्तिं करोमि चतुर्विध चतुष्प्रकारम् अन्नम् हुआ, भय, भोज्य, लेस और चोष्य---ऐसे चार अशनं भोज्यं भक्ष्यं चोष्यं लेझं च । प्रकारके अन्नोंको पचाता हूँ। भोक्ता वैश्वानरः अग्निः भोज्यम् अन्नं सोमः वैवानर अग्नि खानेवाला है और सोम खाया जानेवाला अन्न है । सुतरां यह सारा जगत अग्नि तद् एतद् उभयम् अग्नीपोमो सर्वम् इति पश्यतः और सोमवरूप है, इस प्रकार देखनेवाला मनुष्य अन्नदोपलेपो न भवति ॥१४॥ अन्नके दोपसे लिप्त नहीं होता ॥१४॥ किंच- तथा- वेदैश्च 1 सर्वस्य चाहं हृदि संनिविष्टो मत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च । सर्वैरहमेव वेद्यो वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ॥१५॥ सर्वस्व प्राणिजातस्य अहम् आत्मा सन् दृदि मैं समस्त प्राणीमात्रका आत्मा होकर उनके बुद्धौ संनिविष्टः अतो मत्त आत्मनः सर्वशाणिनां अन्तःकरणमें स्थित हूँ। इसलिये समस्त प्राणियों- स्मृतिः ज्ञानं तदपोहनं च । येषां पुण्यकर्मिणां के स्मृति, ज्ञान और उनका लोप भी मुझ आत्मासे ही किया जाता है, अर्थात् जिन पुण्यकर्मा पुण्यकर्मानुरोधेन ज्ञानस्मृती भवतः तथा प्राणियोंको उनके पुण्यकर्मों के अनुसार ज्ञान और पापकर्मिणां पापकर्मानुरूपेण स्मृत्तिज्ञानयोः स्मृति प्राप्त होते हैं तथा जिन पापाचारियों के अपोहनं च अपायनम् अपगमनं च । ज्ञान और स्मृतिका उनके पापकर्मानुसार लोप होता है ( वह मुझसे ही होता है)। वेदैः च सर्वैः अहम् एव परमात्मा वेद्यो । समस्त वेदोंद्वारा मैं परमात्मा ही जाननेयोग्य वेदितव्यो वेदान्तकृद् वेदान्तार्थसंप्रदायकृद् संप्रदायका कर्ता और वेदके अर्थको समझनेवाला हूँ। तथा वेदान्तका कर्ता, अर्थात् वेदान्तार्थक इत्यर्थः । वेदविद् वेदार्थविद् एव च अहम् ॥१५॥ भी मैं ही हूँ ॥ १५ ॥ भगवत ईश्वरस्य नारायणाख्यस्थ विभूति- 'यदादित्यगतं तेजः' इत्यादि चार श्लोकोद्वारा संक्षेप उक्तो विशिष्टोपाधिकृतो 'यदादित्यगतं नारायण नामक भगवान् ईश्वरकी, विशेष-उत्तम तेजः' इत्यादिना । उपाधियोंसे होनेवाली विभूतियाँ, संक्षेपसे कही गयीं।