पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७८

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श्रीमद्भगवद्गीता अथ अधुना तस्य एव क्षराक्षरोपाधिप्रवि- अब, क्षर और अक्षर---इन दोनों उपाधियोंसे भक्ततया निरूपाधिकस्य केवलस्य स्वरूप- अलग बतलाकर, उसी उपाधिरहित शुद्ध परमात्माके खरूपका निश्चय करनेकी इच्छासे, अगले श्लोकोंका निर्दिधारयिषया उत्तरश्लोका आरभ्यन्ते । तत्र आरम्भ किया जाता है। उनमें पहलेके और आगे सर्वम् एव अतीतानागतानन्तराध्यायार्थजातं आनेवाले सभी अध्यायोंके समस्त अभिप्रायको, तीन त्रिधा राशीकृत्य आह- भेदोंमें विभक्त करके कहते हैं- द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च । क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥ १६ ॥ द्वौ इभौ पृथग राशीकृतौ पुरुधौ इति उच्यते समुदायरूपसे पृथक किये हुए ये दो भाव, संसारमें लोके संसारे क्षरः च क्षरति इति क्षरो विनाशी पुरुष नामसे कहे जाते हैं । इनमेंसे एक समुदाय क्षीण एको राशिः अपरः पुरुषः अक्षरः तद्विपरीतो होनेवाला-नाशवान् क्षर पुरुष है और दूसरा उससे | विपरीत अक्षर पुरुष है, जो कि भगवान्की मायाशक्ति भगवतो मायाशक्तिः क्षराख्यस्य पुरुषस्य है, क्षर पुरुषकी उत्पत्तिका बीज है, तथा अनेक संसारी उत्पत्तिबीजम् अनेकसंसारिजन्तुकामकर्मादि । जीवोंकी कामना और कर्म आदिके संस्कारोंका संस्काराश्रयः अक्षर पुरुष उच्यते । | आश्रय है, वह अक्षर पुरुष कहलाता है । कौ तौ पुरुषौ इति आह खयम् एव वे दोनों पुरुष कौन हैं ? सो भगवान् स्वयं ही भगवान् बतलाते हैं- क्षरः सर्वाणि भूतानि समस्तं विकारजातम् । समस्त भूत अर्थात् प्रकृतिका सारा विकार तो क्षर इत्यर्थः । कूटस्थः कूटो राशी राशिः इव स्थितः, पुरुष है और कूटस्थ अर्थात् जो कूट-राशिकी भाँति स्थित है अथवा कूट नाम मायाका है जिसके वंचना, अथवा कूटो माया वञ्चना जिझता कुटिलता इति पर्यायाः अनेकमायादिप्रकारेण स्थितः अनेक प्रकारसे जो स्थित है, वह कूटस्थ है। संसार- छल, कुटिलता आदि पर्याय हैं, उपर्युक्त माया आदि कूटस्थः संसारबीजानन्त्याद् न क्षरति इति का बीज, अन्तरहित होने के कारण वह कूटस्थ अक्षर उच्यते ॥१६॥ नष्ट नहीं होता, अतः अक्षर कहा जाता है ॥१६॥ आम्यां क्षराक्षराम्यां विलक्षणः क्षराक्षरो- तथा जो क्षर और अक्षर-इन दोनोंसे विलक्षण है, पाधिद्वयदोषेण अस्पृष्टो नित्यशुद्धबुद्धमुक्त- | और क्षर-अक्षररूप दोनों उपाधियोंसे सम्बन्ध- स्वभाव:---- | रहित है वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्तखरूप- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ १७ ॥