पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३७९

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शांकरभाष्य अध्याय १५ उत्तम उस्कृष्टतमः पुरुषः तु अन्यः अत्यन्त- उत्तम-अतिशय उत्कृष्ट पुरुष तो अन्य ही है। विलक्षण आभ्यां परमानमा इति परमः च असौ अर्थात् इन दोनोंसे अत्यन्त विलक्षण है, जो कि देहायविधाकृतात्मभ्य आत्मा च सर्वभूतानां परमात्मा नामसे कहा गया है । वह ईश्वर अविद्या- प्रत्यक्चेतन इत्यतः परमात्मा इति उदाहृत जनित शरीरादि आत्माओंकी अपेक्षा पर है और सब उक्तो बेदान्तेषु प्राणियोंका आत्मा यानी प्रत्यक्-चेतन है इस कारण वेदान्तवाक्योंमें वह परमात्मा' नामसे कहा गया है। स एव विशेष्यते- उसीका विशेषरूपसे निरूपण करते हैं- यो लोकत्रयं भूर्भुवःस्वराख्यं स्वकीयया जो पृथिवी, अन्तरिक्ष और स्वर्ग-इन तीनों चैतन्यबलशक्त्या आविश्य प्रविश्य बिभर्ति लोकोंको, अपने चैतन्य-बलकी शक्तिसे उनमें प्रविष्ट होकर, केवल स्वरूप-सत्तामात्रसे उनको धारण स्वरूपसद्भावमात्रेण बिभर्ति धारयति अव्ययो करता है और जो अविनाशी ईश्वर है, अर्थात् न अस्य व्ययो विद्यते इति अव्यय ईश्वरः जिसका कभी नाश न हो, ऐसा नारायण नामक सर्वज्ञो नारायणाख्य ईशनशीलः ॥१७॥ सर्वज्ञ और सबका शासन करनेवाला है ॥१७॥ यथाव्याख्यातस्य ईश्वरस्थ पुरुषोत्तम इति उपर्युक्त ईश्वरका पुरुषोत्तम यह नाम प्रसिद्ध उसका यह नाम किस कारणसे हुआ? इसकी एतद् नाम प्रसिद्धं तस्य नामनिर्वचनप्रसिद्धथा हेतुसहित उत्पत्ति बतलाकर, नामकी सार्थकता अर्थवत्वं नानो दर्शयन् निरतिशयः अहम् ईश्वर दिखलाने के लिये, भगवान् इस प्रकार अपना स्वरूप इति आत्मानं दर्शयति भगवान्- बतलाते हैं कि 'मैं निरतिशय ईश्वर हूँ यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ १८ ॥ यस्मात् क्षरम् अतीतः अहं संसारमायावृक्षम् क्योंकि मैं क्षरभावसे अतीत हूँ अर्थात् अश्वत्थ अश्वत्थाख्यम् अतिक्रान्तः अहम् अक्षराद् अपि नामक मायामय संसारवृक्षका अतिक्रमण किये हुए हूँ और संसारवृक्षके बीज स्वरूप अक्षरसे (मूल संसारवृक्षवीजभूताद् अपि च उत्तम उत्कृष्टतम प्रकृतिसे ) भी उत्तम--- -अतिशय उत्कृष्ट अथवा ! ऊर्ध्वतमो बा, अतः क्षराक्षराभ्याम् उत्तमत्वाद् अतिशय उच्च हूँ। इसीलिये अर्थात् क्षर और अस्मि भवामि लोके वेदे च प्रथितः प्रख्यातः | अक्षरसे उत्तम होनेके कारण, लोक और वेदमें, मैं पुरुषोत्तम नामसे विख्यात हूँ । भक्तजन मुझे पुरुषोत्तम इति एवं मां भक्तजना विदुः कवयः इसी प्रकार जानते हैं और कविजन भी काव्यादिमें काव्यादिषु च इदं नाम निबन्नन्ति पुरुषोत्तम इसी नामका प्रयोग करते हैं अर्थात् 'पुरुषोत्तम' इति अनेन अभिधानेन अभिगृणन्ति ॥१८॥ इस नामसे ही मेरा वर्णन करते हैं ॥ १८ ॥ ।