पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३८२

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%- षोडशोऽध्यायः दैवी आसुरी राक्षसी च इति प्राणिनां नवें अध्यायमें प्राणियोंकी दैवी, आसुरी और राक्षसी-ये तीन प्रकारकी प्रकृतियाँ बतलायी गयी हैं। प्रकृतयो नवमे अध्याये सूचिताः तासां उन्हें विस्तारपूर्वक दिखानेके लिये 'अभयं सत्त्व- विस्तरेण प्रदर्शनाय अभयं सत्त्वसंशुद्धिः संशुद्धिः' इत्यादि (श्लोकोंसे युक्त सोलहवाँ ) अध्याय इत्यादिः अध्याय आरम्यते आरम्भ किया जाता है। तत्र संसारमोक्षाय दैवी प्रकृतिः निबन्धनाय उन तीनोंमें दैवी प्रकृति संसारसे मुक्त करने- आसुरी राक्षसी च इति दैव्या आदानाय वाली है, तथा आसुरी और राक्षसी प्रकृतियाँ बन्धन | करनेवाली हैं, अतः यहाँ दैवी प्रकृति सम्पादन प्रदर्शनं क्रियते इतरयोः परिवर्जनाय, करनेके लिये और दूसरी दोनों त्यागनेके लिये श्रीभगवानुवाच- दिखलायी जाती हैं-श्रीभगवान् बोले- अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः । दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जवम् ॥ १॥ अभयम् अभीरता सत्त्वसंशुद्धिः सवस्य अभय-निर्भयता, सत्त्वसंशुद्धि- करणकी शुद्धि-~-व्यवहारमें दूसरोंके साथ ठगाई, अन्तःकरणस्य संव्यवहारेषु परवश्चनमाया- कपट और झूठ आदि अवगुणोंको छोड़कर शुद्ध नृतादिपरिवर्जनं शुद्धभावेन व्यवहार इत्यर्थः । भावसे आचरण करना । ज्ञानयोगव्यवस्थितिः ज्ञानं शास्त्रत आचार्यतः ज्ञान और योगमें निरन्तर स्थिति-शास्त्र और च आत्मादिपदार्थानाम् अवगमः अवगतानाम् आचार्यसे आत्मादि पदार्थोंको जानना 'ज्ञान' है और इन्द्रियाद्युपसंहारेण एकाग्रतया खात्मसंवेद्यता- उन जाने हुए पदार्थोंका इन्द्रियादिके निग्रहसे (प्राप्त ) एकाग्रताद्वारा अपने आत्मामें प्रत्यक्ष अनुभव पादनं योगः तयोः ज्ञानयोगयोः व्यवस्थितिः कर लेना 'योग' है । उन ज्ञान और योग दोनोंमें व्यवस्थानं तनिष्ठता एषा प्रधाना दैवी स्थिति अर्थात् स्थिर हो जाना-तन्मय हो जाना, यही सात्त्विकी संपत् । प्रधान सात्त्विकी-दैवी संपद् है । यत्र च येषाम् अधिकृतानां या प्रकृतिः और भी जिन अधिकारियोंकी जिस विषयमें जो संभवति साविकी सा उच्यते- सात्त्विकी प्रकृति हो सकती है वह कही जाती है- दानं यथाशक्ति संविभागः अन्नादीनाम् , दान-अपनी शक्तिके अनुसार अन्नादि वस्तु- ओंका विभाग करना। -अन्तः-