पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३८३

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झांकरमान्य अध्याय १६ दमः च वायकरणानाम् उपनामः अत:- दन--- इन्द्रियो । अन्तःकरणी करपाय उपशम शान्ति वक्ष्यति । असमता ने हानिक नालने आगे कही झायनी । धः च श्रौत: अग्निहोत्रादिः, सात च -अधिोत्रादि औरया और देवपुजनादि देवयज्ञादिः। मालिया। खाध्याय ऋग्वेदामध्ययनम् अदृष्टार्थम् । स्वाध्याय-अदृष्ट लाभ लिये ऋक् आदि वेदोंका तपो वक्ष्यमाणं शारीरादि, आर्जवन ऋजुत्वं सर्वदा ॥१॥ तप-शारीरिक आदि तप जो आगे बतलाया जायगा और आर्जव अर्थात् सदा सरलता-सीधापन ।। तथा- किं च-- अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम् । ढ्या भूतेष्वलोलुप्त्वं माईबं होरचापलम् ॥ २ ॥ अहिंसा अहिंसनं प्राणिनां पीडावर्जनम्, हिंसा--किसी भी वागीको २ष्ट न देना, सत्यम् अप्रियानृतवर्जितं यथाभूनार्थवचनम् । सत्य-अप्रियता और असत्यसे रहित बधार्थ वचन । अक्रोधः परैः आक्रुटस्य अभिहता वा अक्रोध-दूसरों के द्वारा गाली दी जाने या ताइना दी जानेपर, उत्पन्न हुए क्रोधको शान्त कर प्राप्तस्य क्रोधस्स उपशमनम्। त्यागः संन्यासः लेना । त्याग-संन्यास ( दान नहीं ) क्योंकि दान पूर्व दानस्य उक्तत्वात् । पहले कहा जा चुका है। शान्तिः अन्तःकरणस्य उपशमः, अपेशुनम् शान्ति-अन्तःकरणका संकल्परहित होना, अशुन-अपिशुनता, किसी दुसरेके सामने पराये अपिशुनता परस्मै पररन्ध्रप्रकटीकरणं पैशुनं छिद्रोंको प्रकट करना विशुनता ( चुगली ) है, तदभावः अपैशुनम् । उसका न होना अपिशुनता है। दया कृपा भूतेषु दुःखितेषु, अलोलुप्त्वन् भूतोंपर दया--दुःखी प्राणियोंपर कृपा करना, इन्द्रियाणां विषयसंनिधौ अविक्रिया, मार्दवं अलोलुपता-विषयों के साथ संयोग होनेपर भी इन्द्रियों- में विकार न होना, मार्दव-कोमलता अर्थात् अक्रूरता । हीः लजा अचापलम् असति प्रयोजने ही-लजा और अचपलता--विना प्रयोजन वागी, वाक्पाणिपादादीनाम् अव्यापारपितृत्वम् ।।२।। हाथ, पैर आदिको व्यर्थ क्रियाओंका न करना ॥ २ ॥ मृदुता अक्रौर्यम् । किंच-- तथा-- तेजः 1: क्षमा धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता । भवन्ति संपदं दैवीमभिजातस्य भारत ॥ ३ ॥