पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३८४

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श्रीमद्भगवद्गीता तेजः प्रागल्भ्यं न बजता दीप्तिः, क्षमा तेज--प्रागल्भ्य ( तेजस्विता ), चमड़ीकी चमक आक्रुष्टस्य ताडितस्य या अन्तर्विक्रियानुत्पत्तिः नहीं । क्षमा-गाली दी जाने या ताड़ना दी जानेपर भी अन्तःकरण में विकार उत्पन्न न होना । उत्पन्न हुए उत्पन्नायां विक्रियायां प्रशमनम् अक्रोध इति विकारको शान्त कर देना तो पहले अक्रोधके नामसे अबोचाम, इत्थं क्षमाथा अक्रोधस्य च विशेषः। कह चुके हैं। क्षमा और अक्रोधका इतना ही भेद है। धृतिः देहेन्द्रियेषु अवसादं प्राप्तेषु तस्य धृति-शरीर और इन्द्रियादिमें थकावट उत्पन्न प्रतिषेधकः अन्तःकरणवृत्तिविशेषो येन होनेपर,उस थकावटको हटानेवाली जो अन्तःकरणकी वृत्ति है,उसका नाम 'धृति' है, जिसके द्वारा उत्साहित उत्तम्भितानि करणानि देहः च न अवसीदन्ति। की हुई इन्द्रियाँ और शरीर कार्यमें नहीं थकते। शौचं द्विविधं मृजलकृतं बाथम् आभ्यन्तरं शौच-दो प्रकारकी शुद्धि,अर्थात् मिट्टी और जल च मनोबुद्धयोः नैर्मल्यं मायारागादिकालुष्या- आदिसे बाहरकी शुद्धि, एवं कपट और रागादिकी | कालिमाका अभाव होकर मन-बुद्धिकी निर्मलतारूप भाव एवं द्विविधं शौचम्। भीतरकी शुद्धि, इस प्रकार दो तरहकी शुद्धि । अद्रोहः परजिघांसाभावः अहिंसनम् । अद्रोह-दूसरेका घात करनेकी इच्छाका अभाव, यानी हिंसा न करना । नातिमानिता अत्यर्थ मानः अतिमानः स अतिमानिताका अभाव--अत्यन्त मानका नाम यस विद्यते स अतिमानी तद्भावो अतिमानिता अतिमान है, वह जिसमें हो वह अतिमानी है, | उसका भाव अतिमानिता है, उसका जो अभाव है तदभावो नातिमानिता आत्मनः पूज्यता- 'वह 'नातिमानिता' है, अर्थात् अपनेमें अतिशय पूज्य तिशयभावनाभाव इत्यर्थः। भावनाका न होना। भवन्ति अभयादीनि एतदन्तानि संपदम् हे भारत ! 'अभय' से लेकर यहाँतकके ये सब लक्षण, सम्पत्तियुक्त उत्पन्न हुए पुरुषमें होते हैं। अमिजातस्य । किंविशिष्ट संपदम्। दैवीं देवानां कैसी सम्पत्तिसे युक्त पुरुषमें होते हैं ? जो दैवी संपदम् अभिलक्ष्य जातस्य दैवविभूत्यहस्य सम्पत्तिको साथ लेकर उत्पन्न हुआ है, अर्थात् जो । देवताओंकी विभूतिका योग्य पात्र है और भविष्यमें भाविकल्याणस्य इत्यर्थो हे भारत ॥३॥ जिसका कल्याण होना निश्चित है, उस पुरुषके ये लक्षण होते हैं ॥३॥ अथ इदानीम् आसुरी संपद् उच्यते- अब आगे आसुरी सम्पत्ति कही जाती है- दम्भो दर्पोऽतिमानश्च क्रोधः पारुध्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ संपदमासुरीम् ॥ ४ ॥