पृष्ठ:श्रीमद्‌भगवद्‌गीता.pdf/३८५

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शांकरभाष्य अध्याय १६ दम्भोधर्मध्वजित्वम् दयो भनस्वजनादिनिमित्त दम्भ---धर्मध्वजीयन दर्प-धन-परिवार आदिके निमित्तसे होनेवाला गर्व, अतिमान-पहले कही दुई उत्सेका, अतिमान पूर्वोक्तः,क्रोधः च पारुष्यम् एव अपने अतिशय पृज्य भावना तथा क्रोध और पारुष्य च परुषवचनं यथा काणं चक्षुष्मान्, विरूपं यानी कठोर वचन जैसे ( आक्षेपसे) कानेको अच्छे नेत्रोंवाला, कुरूपको रूपवान् और हीन जातिबाले- रूयवान् , हीनाभिजनम् उत्तमाभिजन इत्यादि । को उत्तम जातिवाला बतलाना इत्यादि । अज्ञानं च अविवेकज्ञानं मिथ्याप्रत्ययः अज्ञान अर्थत् अविवेक-कर्तव्य और अकर्तव्यादि- कर्तव्याकर्तव्यादिविषयम् अभिजातस्य पार्थ । . के विषयमें उल्टा निश्चय करना । है पार्थ ! ये सब लक्षण, आतुरी सम्पत्तिको ग्रहण करके उत्पन्न हुए किम् अभिजातस्य इति आह--असुराणां संपद् मनुष्यके हैं, अर्थात् जो असुरोंकी सम्पत्ति है आसुरी तास् अभिजातस्य इत्यर्थः ॥४॥ । उससे युक्त होकर उत्पन्न हुए मनुय्यके चिह्न हैं ॥४॥ अनयोः संपदोः कार्यम् उच्यते--- इन दोनों सम्पत्तियोंका कार्य बतलाया जाता है- देवी संपद्विमोक्षाय निवन्धायासुरी मता। मा शुचः संपदं देवीमभिजातोऽसि पाण्डव ॥ ५॥ दैवी संपद या सा विमोक्षाय संसारवन्धनात् । जो दैवी सम्पत्ति है, वह तो संसार-बन्धनसे निबन्धाय नियतो बन्धो निबन्धः तदर्थम् आसुरी · मुक्त करनेके लिये है, तथा आसुरी और राक्षसी सम्पत्ति निःसन्देह बन्धन के लिये मानी गयी है । निश्चित संपद् मता अभिप्रेता तथा राक्षसी। बन्धनका नाम निबन्ध है, उसके लिये मानी गयी है। तत्र एवम् उक्ते अर्जुनस्य अन्तर्गतं भावं किम् इतना कहनेके उपरान्त अर्जुनके अन्तःकरणमें यह संशययुक्त विचार उत्पन्न हुआ देखकर, अहम् आसुरसंपयुक्तः किं वा दैवसंपयुक्त इति । 'क्या मैं आसुरी सम्पत्तिसे युक्त हूँ अथवा देवी एवम् आलोचनारूपम् आलक्ष्य आह भगवान्- सम्पत्तिसे' भगवान् बोले- मा शुचः शोकं मा कापीः संपदं दैवीम् हे पाण्डव ! शोक मत कर, तू दैवी सम्पत्तिको अभिजातः असि अभिलक्ष्य जातः असि लेकर उत्पन्न हुआ है। अर्थात् भविष्यमें तेरा भाविकल्याणः त्वम् असि इत्यर्थो हे पाण्डवा॥५॥i कल्याण होनेवाला है ॥५॥ द्वौ भूतसा लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च । देवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ मे शृणु ॥ ६ ॥ द्वौ द्विसंख्याको भूतसौँ भूतानां मनुष्याणां इस संसार में मनुष्योंकी दो सृष्टियाँ हैं। जिसकी सौ सृष्टी भूतसगौं सृज्यते इति सगौं रचना की जाय वह सृष्टि हैं, अतः दैवी सम्पत्ति भूतानि एव सृज्यमानानि दैवासुरसंपयुक्तानि और आसुरी सम्पत्तिसे युक्त रचे हुए प्राणी द्वौ भूतसौ इति उच्यते । ही, यहाँ भूत-सुष्टिके नामसे. कहे जाते हैं।